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________________ 428 जैनदर्शन तत्त्वसंग्रहकारने जो विप्र, निर्ग्रन्थ और कापिलोंको एक ही साथ खदेड़ दिया है, वह भी इस अंशमें कि कल्पनारचित विचित्र धर्म तीनों स्वीकार करते हैं। किन्तु निर्ग्रन्थपरम्परामें धर्मोकी स्थिति तो स्वाभाविक है, उनका व्यवहार केवल परापेक्ष होता है। जैसे एक हो पुरुषमें पितृत्व और पुत्रत्व धर्म स्वाभाविक है, किन्तु पितृव्यवहार अपने पुत्रकी अपेक्षा होता है तथा पुत्रव्यवहार अपने पिताकी दृष्टिसे / एक ही धर्मीमें विभिन्न अपेक्षाओंसे दो विरुद्ध व्यवहार किये जा सकते हैं। इसी तरह वेदान्तके आचार्योंने जैनतत्त्वका विपर्यास करके यह मान लिया कि जैनका द्रव्य नित्य ( कूटस्थनित्य ) बना रहता है, केवल पर्यायें अनित्य होती हैं, और फिर विरोधका दूषण दे दिया है। सत्त्व और असत्त्व को या तो अपेक्षाभेदके बिना माने हुए आरोपित कर, दूषण दिये गये हैं या फिर सामान्यतया विरोधका खड्ग चला दिया गया है। वेदान्त भाष्योंमें एक 'नित्य सिद्ध' जीव भी मानकर दूषण दिये हैं / जब कि जैनधर्म किसी भी आत्माको नित्यसिद्ध नहीं मानता / सब आत्माएँ बन्धनोंको काटकर ही सादिमुक्त हुए हैं और होंगे। संशयादि दूषणोंका उद्धार : उपयुक्त विवेचनसे ज्ञात हो गया होगा कि स्याद्वादमें मुख्यतया विरोध और संशय ये दो दूषण ही दिये गये हैं / तत्त्वसंग्रहमें संकर तथा श्रीकंठभाष्यमें अनवस्था दूषणका भी निर्देश है। परन्तु आठ दूषण एक ही साथ किसी ग्रन्थमें देखनेको नहीं मिले। धर्मकीर्ति आदिने विरोध ही मुख्यरूपसे दिया है। वस्तुतः देखा जाय तो विरोध ही समस्त दूषणोंका आधार है।। जैन ग्रन्थों में सर्वप्रथम अकलंकदेवने संशय, विरोध, वैयधिकरण्य, संकर, व्यतिकर, अनवस्था, अप्रतिपत्ति और अभाव इन आठ दूषणोंका परिहार प्रमाणसंग्रह ( 10 103. ) और अष्टशती ( अष्टसह० पृ० 206 ) में किया है। विरोध दूषण तो अनुपलम्भके द्वारा सिद्ध होता है। जब एक ही वस्तु उत्पाद-व्ययध्रौव्यरूपसे तथा सदसदात्मक रूपसे प्रतीतिका विषय है तब विरोध नहीं कहा जा सकता। जैसे मेचकरत्न एक होकर भी अनेक रङ्गोंको युगपत् धारण करता है उसी तरह प्रत्येक वस्तु विरोधी अनेक धर्मोंको धारण कर सकती है। जैसे पृथिवीत्वादि अपरसामान्य स्वव्यक्तियोंमें अनुगत होने के कारण सामान्यरूप होकर भी जलादिसे व्यावर्तक होनेसे विशेष भी हैं, उसी तरह प्रत्येक वस्तु विरोधी दो धर्मोका स्वभावतः आधार रहती है। जिस प्रकार एक ही वृक्ष एक शाखामें चलात्मक तथा दूसरी शाखामें अचलात्मक होता है, एक ही घड़ा मुँहरेपर लालरङ्गका तथा पेंदेमें काले रङ्गका होता है, एक प्रदेशमें आवृत तथा दूसरे प्रदेशमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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