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________________ स्थाद्वाद 427 इसका खास कारण है कि 'वेदान्त परम्परामें जो भेदका उल्लेख हुआ है, वह औपचारिक या उपाधिनिमित्तक है / भेद होने पर भी वे ब्रह्मको निर्विकार ही कहना चाहते हैं। सांख्यके परिणामवादमें वह परिणाम अवस्था या धर्म तक ही सीमित है, प्रकृति तो नित्य बनी रहती है। कुमारिल भेदाभेदात्मक कहकर भी द्रव्यकी नित्यताको छोड़ना नहीं चाहते, वे आत्मामें भले ही इस प्रक्रियाको लगा गये हैं, पर शब्दके नित्यत्वके प्रसंगमें तो उनने उसकी एकान्त-नित्यताका ही समर्थन किया है / अतः अन्य मतोंमें जो अनेकान्तदृष्टिका कहीं-कहीं अवसर पाकर उल्लेख हुआ है उसके पीछे तात्त्विकनिष्ठा नहीं है। पर जैन तत्त्वज्ञानकी तो यह आधार-शिला है और प्रत्येक पदार्थके प्रत्येक स्वरूपके विवेचनमें इसका निरपवाद उपयोग हुआ है। इनने द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक दोनोंको समानरूपसे वास्तविक माना है / इनका अनित्यत्व केवल पर्याय तक ही सीमित नहीं है किन्तु उससे अभिन्न द्रव्य भी स्वयं तद्रूपसे परिणत होता है। पर्यायोंको छोड़कर द्रव्य कोई भिन्न पदार्थ नहीं है / 'स्याद्वाद और अनेकान्तदृष्टिका कहाँ कैसे उपयोग करना' इसी विषय पर जैनदर्शनमें अनेकों ग्रन्थ बने हैं और उसकी सुनिश्चित वैज्ञानिक पद्धति स्थिर की गई है, जब कि अन्य मतोंमें इसका केवल सामयिक उपयोग ही हुआ है / बल्कि इस गठबंधनसे जैनदृष्टिका विपर्यास ही हुआ है और उसके खंडनमें उसके स्वरूपको अन्य मतोंके स्वरूपके साथ मिलाकर एक अजीब गुटाला हो गया है। 'बौद्ध ग्रन्थोंमें भेदाभेदात्मकताके खंडनके प्रसंगमें जैन और जैमिनिका एक साथ उल्लेख है तथा विप्र, निर्ग्रन्थ और कापिलका एक ही रूपमें निर्देश हआ है। जैन और जैमिनिका अभाव पदार्थक विषयमें दृष्टिकोण मिलता है, क्योंकि कुमारिल भी भावान्तररूप ही अभाव मानते हैं। पर इतने मात्रसे अनेकान्तकी विरासतका सार्वत्रिक निर्वाह करने वालोंमें उनका नाम नहीं लिखा जा सकता। ___सांख्यकी प्रकृति तो एक और नित्य बनी रहती है और परिणमन महदादि विकारों तक सीमित है। इसलिये धर्मकोतिका दही और ऊँट में एक प्रकृतिको दष्टिसे अभेदप्रसंगका दूषण जम जाता है, परन्तु यह दूषण अनेकद्रव्यवादी जैनोंपर लागू नहीं होता। किन्तु दूषण देनेवाले इतना विवेक तो नहीं करते, वे तो सरसरी तौरसे परमतको उखाड़नेकी धुनमें एक ही झपट्टा मारते हैं / 1. तेन यदुक्तं जैनजैमिनीयैः-सर्वात्मकमेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे / " -प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 143 / "को नामातिशयः प्रोक्तः विप्रनिर्ग्रन्थकापिलैः।" -तत्त्वसं० श्लो० 1776 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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