SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 459
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 426 जैनदर्शन योगशास्त्रमें इसी तरह परिणामवादका समर्थन है। परिणामका लक्षण भी योगभाष्य ( 3 / 13 ) में अनेकान्तरूपसे ही किया है। यथा-'अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्तौ धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणामः / ' अर्थात् स्थिरद्रव्यके पूर्वधर्मकी निवृत्ति होनेपर नूतन धर्मकी उत्पत्ति होना परिणाम है। ____ भट्ट कुमारिल तो आत्मवाद' (श्लो० 28) में आत्माका व्यावृत्ति और अनुगम उभय रूपसे समर्थन करते हैं / वे लिखते हैं कि 'यदि आत्माका अत्यन्त नाश माना जाता है तो कृतनाश और अकृतागम दूषण आता है और यदि उसे एकरूप माना जाता है तो सुख-दुःख आदिका उपभोग नहीं बन सकता। अवस्थाएँ स्वरूपसे परस्पर विरोधी हैं, फिर भी उनमें एक सामान्य अविरोधी रूप भी है। इस तरह आत्मा उभयात्मक है।" ( आत्मवाद श्लो० 23-30 ) / आचार्य हेमचन्द्रने बीतरागस्तोत्र (818-10) में बहुत सुन्दर लिखा है कि "विज्ञानस्यैकमाकारं नानाकारकरम्बितम् / इच्छस्तथागतः प्राज्ञो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् // 8 // " अर्थात् एक ज्ञानको अनेकाकार माननेवाले समझदार बौद्धोंको अनेकान्तका प्रतिक्षेप नहीं करना चाहिये / चित्रमेकमनेकं च रूपं प्रामाणिकं वदन् / योगो वैशेषिको वापि नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् // 9 // " अर्थात् अनेक आकारवाले एक चित्ररूपको माननेवाले नैयायिक और वैशेषिकको अनेकान्तका प्रतिक्षेप नहीं करना चाहिये / "इच्छन् प्रधानं सत्त्वाद्येविरुद्धैगुम्फितं गुणैः। सांख्यः संख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् // 10 // " अर्थात् एक प्रधान ( प्रकृति ) को सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणोंवाली माननेवाले समझदार सांख्यको अनेकान्तका प्रतिक्षेप नहीं करना चाहिये। ___ इस तरह सामान्यरूपसे ब्राह्मणपरस्परा, सांख्य-योग और बौद्धोंमें भी अनेक दृष्टिसे वस्तुविचारकी परम्परा होने पर भी क्या कारण है जो अनेकान्तवादीके रूपमें जैनोंका ही उल्लेख विशेष रूपसे हुआ है और वे ही इस शब्दके द्वारा पहिचाने जाते हैं ? 1. "द्वयी चेयं नित्यता-कूटस्थनित्यता, परिणामिनित्यता च। तत्र कूटस्थनित्यता पुरुषस्य, परिणामिनित्यता गुणानाम् ।”—योगद० व्यासभा० 1 / 4 / 33 / 2. तस्मादुभयहानेन व्यावृत्यनुगमात्मकः / / पुरुषोऽभ्युपगन्तव्यः कुण्डलादिषु सर्पवत् ॥१८॥"-मो० श्लो० / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy