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________________ स्याद्वाद 425 सिद्धोंको स्वतन्त्र मानने में गौरव है और एक सिद्ध मानकर उसीकी उपासना करने लाघव है' यह कुतर्क भी इसी प्रकारका है; क्योंकि वस्तुस्वरूपका निर्णय सुविधा और असुविधाकी दृष्टिसे नहीं होता। फिर जैनमतमें उपासनाका प्रयोजन सिद्धोंको खुश करना नहीं है, वे तो वीतराग सिद्ध हैं, उनका प्रसाद उपासनाका साध्य नहीं है; किन्तु प्रारम्भिक अवस्या में चित्तमें आत्माके शुद्धतम आदर्श रूपका आलम्बन लेकर उपासनाविधि प्रारम्भ की जाती है, जो आगेकी ध्यानादि अवस्थाओं में अपने आप छूट जाती है। भेदाभेद-विचार : 'अनेक दृष्टियोंसे वस्तुस्वरूपका विचार करना' यह अनेकान्तका सामान्य स्वरूप है। भ० महावीर और बुद्ध के समयमें ही नहीं, किन्तु उससे पहले भी वस्तुस्वरूपको अनेक दृष्टियोंसे वर्णन करनेकी परम्परा थी। ऋग्वेदका ‘एकं सद्विप्रा बहधा वदन्ति' (2 / 3 / 23,46) यह वाक्य इसी अभिप्रायको सूचित करता है। बुद्ध विभज्यवादी थे। वे प्रश्नोंका उत्तर एकांशमें 'हाँ' या 'ना' में न देकर अनेकांशिक रूपसे देते थे। जिन प्रश्नोंको उनने अव्याकृत कहा है उन्हें अनेकांशिक' भी कहा है। जो व्याकरणीय हैं, उन्हें 'एकांशिक-अर्थात् सुनिश्चितरूपसे जिनका उत्तर हो सकता है', कहा है, जैसे दुःख आर्यसत्य है ही। बुद्धने प्रश्नव्याकरण चार प्रकारका बताया है-( दीघनि० 33 संगीतिपरियाय ) एकांशव्याकरण, प्रतिपृच्छा व्याकरणीय प्रश्न, विभज्य व्याकरणीय प्रश्न और स्थापनीय प्रश्न / इन चार प्रश्नव्याकरणोंमें विभज्यव्याकरणीय प्रश्नमें एक ही वस्तुका विभाग करके उसका अनेक दृष्टियोंसे वर्णन किया जाता है। बादरायणके ब्रह्मसूत्रमें (1 / 4 / 20-21) आचार्य आश्मरथ्य और औडुलोमिका मत आता है। ये भेदाभेदवादी थे, ब्रह्म तथा जीवमें भेदाभेदका समर्थन करते थे। शंकराचार्यने बृहदारण्यकभाष्य ( 2 / 3 / 6) में भेदाभेदवादी भर्तृप्रपञ्चके मतका खंडन किया है। ये ब्रह्म और जगत्में वास्तविक एकत्व और नानात्व मानते थे। शंकराचार्यके बाद भास्कराचार्य तो भेदाभेदवादीके रूपमें प्रसिद्ध ही हैं। __सांख्य प्रकृतिको परिणामी नित्य मानते हैं। वह कारणरूपसे एक होकर भी अपने विकारोंकी दृष्टि से अनेक है, नित्य होकर भी अनित्य है / 1. “कतमे च पोट्टपाद मया अनेकसिका धम्मा देसिता पञत्ता ? सस्सता लोको त्ति वा पोट्टपाद मया अनेकसिको धम्मो देसितो पञ्जत्तो। असस्सतो लोकोत्ति खो पोट्ठपाद मया अनेकसिको'.."--दीघनि० पोट्ठपादसुत्त / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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