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________________ 424 जैनदर्शन होकर भी सुवर्णको अविकारी मानना इन्हीं की प्रमाणपद्धतिमें है / भला सुवर्ण जब पर्यायोंको धारण करता है तब वह अविकारी कैसे रह सकता है ? पूर्वरूपका त्याग किये बिना उत्तरका उपादान कैसे हो सकता है ? 'ब्रह्मको जब रमण करनेकी इच्छा होती है तब वे अपने आनन्द आदि गुणोंका तिरोभाव करके जीवादिरूपसे परिणत होते हैं।' यह आविर्भाव और तिरोभाव भी पूर्वरूपका त्याग और उत्तरके उपादानका ही विवेचन है / अतः इनका स्याद्वादमें दूषण देना भी अनुचित है। श्रीनिम्बार्काचार्य और अनेकान्तवाद : ब्रह्मसूत्रके भाष्यकारों में निम्बार्काचार्ग स्वभावतः भेदाभेदवादी हैं / वे स्वरूपसे चित्, अचित् और ब्रह्मपदार्थमे द्वैत श्रुतियों के आधारसे भेद मानते हैं / किन्तु चित्, अचित्की स्थिति और प्रवृत्ति ब्रह्माधीन हो होनेसे वे ब्रह्मसे अभिन्न हैं / जैसे पत्र, पुष्पादि स्वरूपसे भिन्न होकर भी वृक्षसे पृथक् प्रवृत्त्यादि नहीं करते, अतः वृक्षसे अभिन्न हैं, उसी तरह जगत् और ब्रह्मका भेदाभेद स्वाभाविक है, यही श्रुति, स्मृति और सूत्रसे समर्थित होता है / इस तरह ये स्वाभाविक भेदाभेदवादी होकर भी जैनोंके अनेकान्तमें सत्त्व और असत्त्व दो धर्मोको विरोधदोषके भयसे नहीं मानना चाहते', यह बड़े आश्चर्यकी बात है ! जब इसके टीकाकार श्रीनिवासाचार्यसे प्रश्न किया गया कि 'आप भी तो ब्रह्ममें भेदाभेद मानते हो, उसमें विरोध क्यों नहीं आता ? तो वे बड़ी श्रद्धासे उत्तर देते हैं कि 'हमारा मानना यक्तिसे नहीं है, किन्तु ब्रह्मके भेदाभेदका निर्णय श्रुतिमें ही हो जाता है।' यानी श्रुतिसे यदि भेदाभेदका प्रतिपादन होता है, तो ये माननेको तैयार हैं, पर यदि वही बात कोई युक्तिसे सिद्ध करता है, तो उसमें इन्हें विरोधकी गन्ध आती है। पदार्थके स्वरूपके निर्णयमें लाघव और गौरवका प्रश्न उठाना अनुचित है, जैसे कि एक ब्रह्मको कारण मानने में लाघव है और अनेक परमाणुओंको कारण मानने में गौरव / वस्तुकी व्यवस्था प्रतीतिसे की जानी चाहिये / 'अनेक समान स्वभाववाले 1. "जैना वस्तुमात्रम् अस्तित्व-नास्तित्वादिना विरुद्धधर्मद्वयं योजयन्ति; तन्नोपपद्यते; एकस्मिन् वस्तुनि सत्त्वासत्त्वादेविरुद्धधर्मस्य छायातपवत् युगपदसंभवात् " --ब्रह्मसू० नि० भा० 2 / 2 / 33 / 2. "ननु भवन्मतेऽपि एकस्मिन् धर्मिणि विरुद्धधर्मद्वयाङ्गीकारोऽस्ति, तथा सर्व खल्विदं ब्रह्म इत्यादिपु एकत्वं प्रतिपाद्यते / प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः द्वासुपर्णा इत्यादाकनेकत्वञ्च प्रतिपाद्यते, इति चेत् ; न; अस्यार्थस्य युक्तिमूलत्वाभावात्, श्रुतिभिरेव परस्पराविरोधेन यथार्थ निर्णीतत्वात् 'इत्थं जगद्ब्रह्मणोभेदाभेदौ स्वाभाविको श्रुतिस्मृतिसूत्रसाधितौ भवतः, कोऽत्र विरोधः।”—निम्बार्कमा० टी० 2,2 / 33 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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