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________________ स्थाद्वाद 423 कोई ठिकाना है ! जैनोंके संख्याबद्ध ग्रन्थ इस स्याद्वाद और सप्तभङ्गीकी विविध अपेक्षाओंसे भरे पड़े हैं और इसका वैज्ञानिक विवेचन भी वहीं मिलता है। फिर भी उन्हींके मत्थे ये सब दूषण मढ़े जा रहे हैं और यहाँ तक लिखा जा रहा है कि यह लोकविरोधी स्याद्वाद सर्वतः बहिष्कार्य है ! किमाश्चर्यमतः परम् !! इसकी लोकविरोधिता आदिकी सिद्धिके लिये इस 'स्याद्वाद और सप्तभती' प्रकरणमें पर्याप्त लिखा गया है / श्रीरामानुजाचार्य और स्याद्वाद : श्री रामानुजाचार्य भी स्याद्वादमें उसी तरह निरुपाधि या निरपेक्ष सत्त्वासत्त्वका आरोप करके विरोध दूषण देते हैं। वे स्याद्वादियोंको समझानेका साहस करते हैं कि "आप लोग प्रकारभेदसे धर्मभेद मानिये / " गोया स्याद्वादी अपेक्षाभेदको नहीं समझते हों, या एक ही दृष्टिसे विभिन्न धर्मोंका सद्भाव मानते हों। अपेक्षाभेद, उपाधिभेद या प्रकारभेदके आविष्कारक आचार्योंको उन्हींका उपदेश देना कहाँ तक शोभा देता है ? स्याद्वादका तो आधार ही यह है कि विभिन्न दृष्टिकोणोंसे अनेक धर्मोको स्वीकार करना और कहना। सच पूछा जाय तो स्याद्वादका आश्रयण किये बिना ये विशिष्टाद्वैतताका निर्वाह नहीं कर सकते हैं / श्रीवल्लभाचार्य और स्याद्वाद : श्रीवल्लभाचार्य भी विवसन-समयमें प्राचीन परम्पराके अनुसार विरोध दूषण ही उपस्थित करते हैं। वे कहना चाहते हैं कि “वस्तुतः विरुद्धधर्मान्तरत्व ब्रह्ममें ही प्रमाणसिद्ध हो सकता है / " 'स्यात्' शब्दका अर्थ इन्होंने 'अभीष्ट' किया है। आश्चर्य तो यह है कि ब्रह्मको निर्विकार मानकर भी ये उसमें उभयरूपता वास्तविक मानना चाहते हैं और जिस स्याद्वादमें विरुद्ध धर्मोंको वस्तुतः सापेक्ष स्थिति बनती है उसमें विरोध दूषण देते हैं ! ब्रह्मको अविकारी कहकर भी ये उसका जगत्के रूपसे परिणमन कहते हैं / कुंडल, कटक आदि आकारोंमें परिणत 1. "द्रव्यस्य तद्विशेषणभूतपर्यायशब्दाभिधेयावस्थाविशेषरय च 'इदमित्थम्' इति प्रतीतेः, प्रकारिप्रकारतया पृथक् पदार्थत्वात् नैकस्मिन् विरुद्धप्रकारभूतसत्वासत्त्वस्वरूपधर्मसमावेशो युगपत् संभवति"एकस्य पृथिवीद्रव्यस्य घटत्वाश्रयत्वं शरावत्वाश्रयत्वं च प्रदेशभेदेन न त्वेकेन प्रदेशेनोभयाश्रयत्वं, यथैकस्य देवदत्तस्य उत्पत्तिविनाशयोग्यत्वं कालभेदेन / न ह्येतावता द्वयात्मकत्वमपि तु परिणामशक्तियोगमात्रम् / " -वेदान्तदीप पृ० 111-12 / 2. 'ते हि अन्तनिष्ठाः प्रपञ्चे उदासीनाः सप्तविभक्तीः परेच्छया वदन्ति / स्याच्छब्दोऽभीष्ट वचनः / तद्विरोधेनासम्भवादयुक्तम् ।'-अणुभा० 2 / 2 / 33 / / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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