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________________ 422 जैनदर्शन है-'सुनिश्चित दृष्टिकोण / ' श्रीकण्ठभाष्यकी टीकामें श्रीअप्पय्यदीक्षित'को देश काल और स्वरूप आदि अपेक्षाभेदसे अनेक धर्म स्वीकार करना अच्छा लगता है और 'अपेक्षाभेदसे अनेक धर्म स्वीकार करने में लौकिक और परीक्षकोंको कोई विवाद नहीं हो सकता।' यह भी वे मानते है, परन्तु फिर हिचककर कहते हैं कि 'सप्तभंगीका यह स्वरूप जैनोंको इष्ट नहीं है।' वे यह आरोप करते हैं कि 'स्याद्वादी तो अपेक्षाभेदसे अनेक धर्म नहीं मानते किन्तु बिना अपेक्षाके ही अनेक धर्म मानते हैं / ' आश्चर्य है कि वे आचार्य अनन्तवीर्य कृत "तद्विधानविवक्षायां स्यादस्तीति गतिर्भवेत् / स्यान्नास्तीति प्रयोगः स्यात्तान्नषेधे विवक्षिते / / " ___ इत्यादि कारिकाओंको उद्धृत भी करते हैं और स्याद्वादियोंपर यह आरोप भी करते जाते हैं कि 'स्याद्वादी बिना अपेक्षाके ही सब धर्म मानते हैं।' इन स्पष्ट प्रमाणोंके होते हुए भी ये कहते हैं कि 'दूसरोंके गले उतारनेके लिए जैन लोग अपेक्षारूपी गुड़ चटा देते हैं, वस्तुतः वे अपेक्षा मानते नहीं हैं, वे तो निरुपाधि सत्त्व और असत्त्व मानना चाहते हैं।' इस मिथ्या आरोपके लिये क्या कहा जाय ? और इसी आधारपर वे कहते हैं कि 'स्त्रीमें माता' पत्नी आदि आपेक्षिक व्यवहार न होनेसे स्याद्वादमें लोक-विरोध होगा।' भला, जो दूषण स्याद्वादी एकान्तवादियोंको देते हैं वे ही दूषण जैनोंको जबरदस्ती दिये जा रहे हैं, इस अन्धेरका 1. “ययेवं पारिभाषिकोऽयं सप्तभङ्गीनयः स्वीक्रियत एव / घटादिः स्वदेशेऽस्ति अन्यदेशे नास्ति, स्वकालेऽस्ति अन्यकाले नास्ति, स्वात्मना अस्ति अन्यात्मना नास्ति, इति देशकालप्रतियोगिरूपोपाधिभेदेन सत्त्वासत्त्वसमावेशे लौकिकपरीक्षकाणां विप्रतिपत्त्यसंभवात् / न चैतावता पराभिमतं वस्त्वनैकान्त्यमापद्यते--स्वकाले सदेव, अन्यकाले असदेव इत्यादि नियमस्य भङ्गाभावात् / स देश इह नास्ति, स काल इदानीं नास्तीत्यादिप्रतीतौ देशकालाद्युपाध्यन्तराभावात् , तत्राप्युपाध्यन्तरापेक्षणेऽनवस्थानात् / इतरान् अङ्गीकारयितु परं गुडजिहिकान्यायेन देशकालाधुपाधिभेदमन्तर्भाव्य सत्त्वासत्त्वप्रतीतिरुपन्यस्यते / वस्तुतो विमृश्यमाना सा निरुप धिकैव सत्त्वासत्त्वादिसंकरे प्रमाणम् / अत एव स्याद्वादिना 'घटोऽस्ति घटो नास्ति पटः सन् पटोऽसन्' इत्यादि प्रत्यक्षप्रतीतिमेव सत्त्वासत्वाद्यनैकान्त्ये प्रमाणमुपगच्छन्ति,... परस्परविरुद्धधर्मसमावेशे सर्वानुभवसिद्धस्तावदुपाधिभेदो नापह्नोतुं शक्यते। लोकमर्यादामनतिक्रममाणेन देशकालादिसत्त्वनिषेधेऽपि देशकालाधुपाध्यवच्छेदः अनुभूयत एव / इहात्माश्रयः, परस्पराश्रयः, अनवस्था वा न दोषः, यथा प्रमेयत्वाभिधेयत्वादिवृत्ती, यथा च बीजाङ्कुरादिकार्यकारणभावे विरुद्धधर्मसमावेशे। सर्वथोपाधिभेदं प्रत्याचक्षाणस्य चायमस्याः पुत्रः, अस्याः पतिः, अस्याः पिता, अस्याश्श्वसुर इत्यादिव्यवस्थापि न सिद्धयेदिति कथं तत्र तत्र स्याद्वादे मातृत्वाधुचितव्यवहारान् व्यवस्थयाऽनुतिष्ठेत् / तस्मात् सर्व. . बहिष्कार्योऽयमनेकान्तवादः ।"-श्रीकण्ठमा० टी० पृ० 103 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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