________________ स्याद्वाद 421 श्रोविज्ञानभिक्षु और स्यावाद : ब्रह्मसूत्रके विज्ञानामृत भाष्यमें दिगम्बरों के स्याद्वादको अव्यवस्थित बताते हुए लिखा है कि "प्रकारभेदके बिना दो विरुद्ध धर्म एक साथ नहीं रह सकते। यदि प्रकारभेद माना जाता है, तो विज्ञानभिक्षुजी कहते हैं कि हमारा ही मत हो गया और उसमें सब व्यवस्था बन जाती है, अतः आप अव्यवस्थित तत्त्व क्यों मानते हैं ?'' किन्तु स्याद्वाद सिद्धान्तमें अपेक्षाभेदसे प्रकारभेदका अस्वीकार कहाँ है ? स्याद्वादका प्रत्येक भंग अपने निश्चित दृष्टिकोणसे उस धर्मका अवधारण करके भी वस्तुके अन्य धर्मोंकी उपेक्षा नहीं होने देता। एक निर्विकार ब्रह्ममें परमार्थतः प्रकारभेद कैसे बन सकते हैं ? अनेकान्तवाद तो वस्तुमें स्वभावसिद्ध अनन्तधर्म मानता है / उसमें अव्यवस्थाका लेशमात्र नहीं है / उन धर्मोंका विभिन्न दृष्टिकोणोंसे मात्र वर्णन होता है, स्वरूप तो उनका स्वतःसिद्ध है। प्रकारभेदसे कहीं एक साथ दो धर्मोके मान लेनेसे ही व्यवस्थाका ठेका नहीं लिया जा सकता। अनेकान्ततत्त्वकी भूमिका ही समस्त विरोधोंका अविरोधी आधार हो सकती है। श्रीश्रीकण्ठ और अनेकान्तवाद : श्रीकण्ठाचार्य अपने श्रीकण्ठभाष्यमें उसी पुरानो विरोधवाली दलीलको दुहराते हुए कहते हैं कि "जैसे पिंड, घट और कपाल अवस्थाएँ एक साथ नहीं हो सकतीं, उसी तरह अस्तित्व और नास्तित्व आदि धर्म भी।" परन्तु एक द्रव्यकी कालक्रमसे होनेवाली पर्यायें युगपत् सम्भव न हों, तो न सही, पर जिस समय घड़ा स्वचतुष्टयसे 'सत्' है उसी समय उसे पटादिकी अपेक्षा 'असत्' होने में क्या विरोध है ? पिंड, घट और कपाल पर्यायोंके रूपसे जो पुद्गलाणु परिणत होंगे, उन अणुद्रव्यों की दृष्टिसे अतीतका संस्कार और भविष्यकी योग्यता वर्तमानपर्यायवाले द्रव्यमें तो है ही। आप 'स्यात्' शब्दको ईषदर्थक मानते हैं। पर 'ईषत्'से स्याद्वादका अभिधेय ठीक प्रतिफलित नहीं होता। 'स्यात्'का वाच्यार्थ 1. अपरे वेदबाह्या दिगम्बरा एकस्मिन्नेव पदार्थे भावाभावौ मन्यन्ते सर्व वस्त्वव्यवस्थितमेव स्यादस्ति स्यान्नास्ति.. अत्रेदमुच्यते; न; एकस्मिन् यथोक्तभावाभावादिरूपत्वमपि / कुतः ? असम्भवात् / प्रकारभेदं बिना विरुद्धयोरेकदा सहावस्थानसंस्थानासम्भवात्। प्रकारभेदाभ्युपगमे वास्मन्मतप्रवेशेन सर्वैव व्यवस्थास्ति कथमव्यवस्थितं जगदभ्युगम्यते भवद्भिरित्यर्थः ।"-विज्ञानामृतभा० 2 / 2 / 33 / 2. "जैना हि सप्तभङ्गीन्यायेन 'स्याच्छब्द ईषदर्थः। एतदयुक्तम् ; कुतः ? एकस्मिन् वस्तुनि सत्त्वासत्त्वनित्यत्वानित्यत्वभेदाभेदादीनामसंभवात् / पर्यायभाविनश्च द्रव्यस्यास्तित्वनास्तित्वादिशब्दबुद्धिविषयाः परस्परविरुद्धाः पिण्डत्वघटत्वकपालवाद्यवस्थावत् युगपन्न संभवन्ति / अतो विरुद्ध एव जैनवादः।"-श्रीकण्ठभा० 2 / 2 / 33 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org