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________________ 420 जैनदर्शन इच्छानुसार सत्य या असत्य नहीं होते। सूर्य स्तुति करनेवाले और निन्दा करने वाले दोनोंको ही तो तपाता है। यदि मुमुक्षुओंके लिये प्रपञ्च मिथ्या हो और अन्यके लिए तथ्य; तो एक साथ तथ्य और मिथ्यात्वका प्रसंग होता है।......."अतः ब्रह्मको भिन्नाभिन्न रूप मानना चाहिये / कहा भी है___ "कार्यरूपसे अनेक और कारणरूपसे एक हैं, जैसे कि कुंडल आदि पर्यायोंसे भेद और सुवर्णरूपसे अभेद होता है।" इस तरह ब्रह्म और प्रपञ्चके भेदाभेदका समर्थन करनेवाले आचार्य जो एकान्तवादियोंको 'प्रज्ञापराध, अनिरूपितप्रमाणप्रमेय' आदि विचित्र विशेषणोंसे सम्बोधित करते हैं, वे स्वयं दिगम्बर-विवसन मतका खंडन करते समय कैसे इन विशेषणोंसे बच सकते हैं ? पृ० 103 में फिर ब्रह्मके एक होने पर भी जीव और प्राज्ञके भेदका समर्थन करते हुए लिखा है कि "जिस प्रकार पृथिवीत्व समान होने पर भी पद्मराग तथा क्षुद्र पाषाण आदिका परस्पर भेद देखा जाता है उसी तरह ब्रह्म और जीवप्राज्ञमें भी समझना चाहिये / इसमें कोई विरोध नहीं है।" पृ० 164 में फिर ब्रह्मके भेदाभेद रूपके समर्थनका सिद्धान्त दुहराया गया है। मैंने यहाँ जो भास्कराचार्यके ब्रह्मविषयक भेदाभेदका प्रकरण उपस्थित किया है, उसका इतना ही तात्पर्य है कि 'भेद और अभेदमें परस्पर विरोध नहीं है, एक वस्तु उभयात्मक हो सकती है' यह बात भास्कराचार्यको सिद्धान्तरूपमें इष्ट है / उनका 'ब्रह्मको सर्वथा नित्य स्वीकार करके ऐसा मानना उचित हो सकता है या नहीं ?' यह प्रश्न यहाँ विचारणीय नहीं है। जो कोई भी तटस्थ व्यक्ति उपर्युक्त भेदाभेदविषयक शंका-समाधानके साथ-ही-साथ इनके द्वारा किये गये जैनमतके खंडनको पढ़ेगा, वह मतासहिष्णुताके स्वरूपको सहज ही समझ सकेगा ! यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि स्याद्वादके भंगोंको ये आचार्य 'अनिश्चय'के खाते में तुरंत खतया देते हैं ! और 'मोक्ष है भी नहीं भी' कहकर अप्रवृत्तिका दूषण दे बैठते है और दूसरोंको उन्मत्त तक कह देते हैं ! भेदाभेदात्मकतत्त्वके समर्थनका वैज्ञानिक प्रकार इस तत्त्वके द्रष्टा जैन आचार्योंसे ही समझा जा सकता है। यह परिणामी नित्य पदार्थमें ही संभव है, सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्यमें नहीं; क्योंकि द्रव्य स्वयं तादात्म्य होता है, अतः पर्यायसे अभिन्न होनेके कारण द्रव्य स्वयं अनित्य होता हुआ भी अपनी अनाद्यनन्त अविच्छिन्न धाराकी अपेक्षा ध्रुव या नित्य होता है। अतः भेदाभेदात्मक या उभयात्मक तत्त्वकी जो प्रक्रिया, स्वरूप और समझने-समझानेकी पद्धति आर्हत दर्शनमें व्यवस्थित रूपसे पाई जाती है, वह अन्यत्र दुर्लभ ही है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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