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________________ स्याद्वाद 419 समस्त पदार्थ भिन्नाभिन्न ही प्रतीत होते हैं ! वे आगे लिखते हैं कि सर्वथा अभिन्न या भिन्न पदार्थ कोई दिखा नहीं सकता। सत्ता, ज्ञेयत्व और द्रव्यत्वादि सामान्यरूपसे सब अभिन्न हैं और व्यक्तिरूपसे परस्पर विलक्षण होनेके कारण भिन्न / जब उभयात्मक वस्तु प्रतीत हो रही है, तब विरोध कैसा ? विरोध या अविरोध प्रमाणसे ही तो व्यवस्थापित किये जाते हैं / यदि प्रतीतिके बलसे एकरूपता निश्चित की जाती है तो द्विरूपता भी जब प्रतीत होती है तो उसे भी मानना चाहिये / 'एकको एकरूप ही होना चाहिये' यह कोई ईश्वराज्ञा नहीं है। प्रश्न-शीत और उष्णस्पर्शकी तरह भेद और अभेदमें विरोध क्यों नहीं है ? ___ उत्तर-यह आपकी बुद्धिका दोष है, वस्तुमें कोई विरोध नहीं है ? छाया और आतपकी तरह सहानवस्थान विरोध तथा शीत और उष्णकी तरह भिन्नदेशवर्तित्वरूप विरोध कारणब्रह्म तथा कार्यप्रपंचमें नहीं हो सकता; क्योंकि वह ही उत्पन्न होता है, वही अवस्थित है और वही प्रलय होता है। यदि विरोध होता, तो ये तीनों नहीं बन सकते थे। अग्निसे अंकुरकी उत्पत्ति आदिरूपसे कार्यकारणसम्बन्ध तो नहीं देखा जाता। कारणभूत मिट्टी और सुवर्ण आदिसे ही तज्जन्य कार्य सर्वदा अनुस्यूत देखे जाते हैं / अतः आँखें बन्द करके जो यह परस्पर असंगतिरूप विरोध कहा जाता है वह या तो बुद्धि-विपर्यासके कारण कहा जाता है या फिर प्रारम्भिक श्रोत्रियके कानोंको ठगनेके लिए / शीत और उष्ण स्पर्श हमेशा भिन्न आधारमें रहते हैं, उनमें न तो कभी उत्पाद्य-उत्पादक सम्बन्ध रहा है और न आधाराधेयभाव ही, अतः उनमें विरोध हो सकता है। अतः 'शीतोष्णवत्' यह दृष्टान्त उचित नहीं है / शंकाकार बड़ी प्रगल्भतासे कहता है कि- शंका-'यह स्थाणु है या पुरुष' इस संशयज्ञानकी तरह भेदाभेदज्ञान अप्रमाण क्यों नहीं है ? उत्तर-परस्परपरिहारवालोंका ही सह अवस्थान नहीं हो सकता। संशयज्ञानमें किसी भी प्रमेयका निश्चय नहीं होता, अतः वह अप्रमाण है। किन्तु यहाँ तो मिट्टी, सुवर्ण आदि कारण पूर्वसिद्ध हैं, उनसे बादमें उत्पन्न होनेवाला कार्य तदाश्रित ही उत्पन्न होता है। कार्य कारणके समान ही होता है। कारणका स्वरूप नष्टकर भिन्न देश या भिन्न कालमें कार्य नहीं होता। अतः प्रपञ्चको मिथ्या कहना उचित नहीं है। किसी पुरुषकी अपेक्षा वस्तुमें सत्यता नहीं आँकी जा सकती कि 'मुमुक्षुओंके लिये प्रपञ्च असत्य है और इतर व्यक्तियोंके लिये सत्य है / ' रूपको अन्धेके लिये असत्य और आँखवालेको सत्य नहीं कह सकते / पदार्थ पुरुषकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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