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________________ 418 जैनदर्शन * और ज्ञानका विषय होनेसे कर्म है।' अविरोधी अनेक धर्म माननेमें तो इन्हें कोई सीधा विरोध है ही नहीं। श्रीभास्कर भट्ट और स्याद्वाद: ब्रह्मसूत्रके भाष्यकारोंमें भास्कर भट्ट भेदाभेदवादी माने जाते हैं / इनने अपने भाष्यमें शंकराचार्यका खण्डन किया है। किन्तु "नैकस्मिन्नसम्भवात्" सूत्रमें आर्हतमतकी समीक्षा करते समय ये स्वयं भेदाभेदवादी होकर भी शंकराचार्यका अनुसरण करके सप्तभंगीमें विरोध और अनवधारण नामके दूषण देते हैं / वे कहते हैं कि “सब अनेकान्तरूप है, ऐसा निश्चय करते हो या नहीं ? यदि हाँ, तो यह एकान्त हो गया, और यदि नहीं; तो निश्चय भी अनिश्चयरूप होनेसे निश्चय नहीं रह जायगा। अत: ऐसे शास्त्रके प्रणेता तीर्थङ्कर उन्मत्ततुल्य हैं।" आश्चर्य होता है इस अनूठे विवेकपर ! जो स्वयं जगह-जगह भेदाभेदात्मक तत्त्वका समर्थन उसी पद्धतिसे करते हैं जिस पद्धतिस जैन, वे ही अनेकान्तका खण्डन करते समय सब भूल जाते हैं। मैं पहले लिख चुका हूँ कि स्याद्वादका प्रत्येक भङ्ग अपने दृष्टिकोणसे सुनिश्चित है। अनेकान्त भी प्रमाणदृष्टिसे ( समग्रदृष्टिसे ) अनेकान्तरूप है और नयदृष्टिसे एकान्तरूप है / इसमें अनिश्चय या अनवधारणकी क्या बात है ? एक स्त्री अपेक्षाभेदसे 'माता भी है और पत्नी भी, वह उभयात्मक है' इसमें उस कुतर्कीको क्या कहा जाय, जो यह कहता है कि 'उसका एकरूप निश्चित कीजिये-या तो माता कहिये या फिर पत्नी ?' जब हम उसका उभयात्मकरूप निश्चितरूपसे कह रहे हैं, तब यह कहना कि 'उभयात्मकरूप भी उभयात्मक होना चाहिये; यानी 'हम निश्चित रूपसे उभयात्मक नहीं कह सकते। उसका सीधा उत्तर है कि वह स्त्री उभयात्मक है, एकात्मक नहीं' इस रूपसे उभयात्मकतामें भी उभयात्मकता है। पदार्थका प्रत्येक अंश और उसको ग्रहण करनेवाला नय अपनेमें सुनिश्चित होता है। अब भास्कर-भाष्य'का यह शंका समाधान देखिएप्रश्न-'भेद और अभेदमें' तो विरोध है ? उत्तर-यह प्रमाण और प्रमेयतत्त्वको न समझनेवालेकी शंका है !......"जो वस्तु प्रमाणसे जिस रूपमें परिच्छिन्न हो, वह उसी रूप है ! गौ, अश्व आदि 1. “यदप्युक्तं भेदाभेदयोविरोध इति; तदभिधीयते, अनिरूपितप्रमाणप्रमेयतत्वस्येदं चोद्यम् / ..... यत्प्रमाणैः परिच्छिन्नमविरुद्धं हि तत्तथा। वस्तुजातं गवाश्वादि भिन्नाभिन्नं प्रतीयते ।"-भास्करभा० पृ० 16 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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