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________________ स्याद्वाद 417 विधेयात्मक रूपपर ध्यान दिया होता, तो वे स्वयं अनन्तधर्मात्मक स्वरूपपर पहुँच ही जाते। शब्दोंकी एकधर्मवाचक सामर्थ्यके कारण जो उलझन उत्पन्न होती है उसके निबटारेका मार्ग है स्याद्वाद। हमारा प्रत्येक कथन सापेक्ष होना चाहिए और उसे सुनिश्चित विवक्षा या दृष्टिकोणका स्पष्ट प्रतिपादन करना चाहिये। श्रीव्योमशिव और अनेकन्तवाद : आचार्य व्योमशिव प्रशस्तपादभाष्यके प्राचीन टीकाकार हैं। वे अनेकान्तज्ञानको मिथ्यारूप कहते समय व्योमवती टीका ( पृ० 20 ङ) में वही पुरानी विरोधवाली दलील देते हैं कि "एकधर्मीमें विधि-प्रतिषेधरूप दो विरोधी धर्मोंकी सम्भावना नहीं है / मुक्तिमें भी अनेकान्त लगनेसे वही मुक्त भी होगा और वही संसारी भी। इसी तरह अनेकान्तमें अनेकान्त माननेसे अनवस्था दूषण आता है।" उन्हें सोचना चाहिये कि जिस प्रकार एक चित्र-अवयवीमें चित्ररूप एक होकर भी अनेक आकारवाला होता है, एक ही पृथिवीत्वादि अपरसामान्य स्वव्यक्तियोंमें अनुगत होनेके कारण सामान्य होकर भी जलादिसे व्यावृत्त होनेसे विशेष भी कहा जाता है और मेचकरत्न एक होकर भी अनेकाकार होता है, उसी तरह एक ही द्रव्य अनेकान्तरूप हो सकता है, उसमें कोई विरोध नहीं है। मुक्तमें भी अनेकान्त लग सकता है / एक ही आत्मा, जो अनादिसे बद्ध था, वही कर्मबन्धनसे मुक्त हुआ है, अतः उस आत्माको वर्तमान पर्यायकी दृष्टिसे मुक्त तथा अतीतपर्यायोंकी दृष्टिसे अमुक्त कह सकते हैं, इसमें क्या विरोध है ? द्रव्य तो अनादि-अनन्त होता है। उसमें त्रैकालिक पर्यायोंकी दृष्टिसे अनेक व्यवहार हो सकते हैं। मुक्त कर्मबन्धनसे हुआ है, स्वस्वरूपसे तो वह सदा अमुक्त ( स्वरूपस्थित ) ही है। अनेकान्तमें भी अनेकान्त लगता ही है / नयकी अपेक्षा एकान्त है और प्रमाणकी अपेक्षा वस्तुतत्त्व अनेकान्तरूप है / आत्मसिद्धि-प्रकरणमें व्योमशिवाचार्य आत्माको स्वसंवेदनप्रत्यक्षका विषय सिद्ध करते हैं। इस प्रकरणमें जब यह प्रश्न हुआ कि 'आत्मा तो कर्ता है वह उसी समय संवेदनका कर्म कैसे हो सकता है ?' तो इन्होंने इसका समाधान अनेकान्तका आश्रय लेकर ही इस प्रकार किया है कि 'इसमें कोई विरोध नहीं है, लक्षणभेदसे दोनों रूप हो सकते हैं। स्वतंत्रत्वेन वह कर्ता है 1. देखो, यही ग्रन्थ पृ० 525 / 2. “अथात्मनः कर्तृत्वादेकस्मिन् काले कर्मत्वासंभवेनाप्रत्यक्षत्वम् ; तन्न; लक्षणभेदेन तदुपपत्तेः / तथाहि-ज्ञानचिकीर्षाधारत्वस्य कर्तृलक्षणस्योपपत्तेः कर्तृत्वम्, तदैव च क्रियया व्याप्यत्वोपलब्धेः कर्मत्वं चेति न दोषः, लक्षणतन्त्रत्वाद् वस्तुव्यवस्थायाः / " -प्रश० व्यो० पृ० 362 / 27 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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