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________________ 416 जैनदर्शन है, क्योंकि परका ही तो नास्तित्व है। जगत् अन्योऽन्याभावरूप है। घट घटेतर यावत् पदार्थोसे भिन्न है। 'यह घट अन्य घटोंसे भिन्न है' इस भेदका नियामक परका नास्तित्व ही है / पररूप उसका नहीं है', इसीलिये तो उसका नास्तित्व माना जाता है। यद्यपि पररूप वहाँ नहीं है, पर उसको आरोपित करके उसका नास्तित्व सिद्ध किया जाता है कि 'यदि घड़ा पटादिरूप होता, तो पटादिरूपसे उसकी उपलब्धि होनी चाहिये थी।' पर नहीं होती, अतः सिद्ध होता है कि घड़ा पटादिरूप नहीं है। यही उसका एकत्व या कैवल्य है जो वह स्वभिन्न परपदार्थरूप नहीं है। जिस समय परनास्तित्वकी विवक्षा होती है; उस समय अभाव ही वस्तुरूप पर छा जाता है, अतः वही वही दिखाई देता है, उस समय अस्तित्वादि धर्म गौण हो जाते हैं और जिस समय अस्तित्व मुख्य होता है उस समय वस्तु केवल सद्रूप ही दिखती है, उस समय नास्तित्व आदि गौण हो जाते हैं / यही अन्य भंगोंमें समझना चाहिए। ____ तत्त्वोपप्लवकार किसी भी तत्त्वकी स्थापना नहीं करना चाहते, अतः उनकी यह शैली है कि अनेक विकल्प-जालसे वस्तुस्वरूपको मात्र विघटित कर देना। अन्तमें वे कहते हैं कि इस तरह उपप्लुत तत्त्वोंमें ही समस्त जगत्के व्यवहार अविचारितरमणीय रूपसे चलते रहते हैं। परन्तु अनेकान्त-तत्त्वमें जितने भी विकल्प उठाए जाते हैं, उनका समाधान हो जाता है। उसका खास कारण यह है कि जहाँ वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक एवं अनन्तगुण-पर्यायवाली है वहीं वह अनन्तधर्मोसे युक्त भी है। उसमें कल्पित-अकल्पित सभी धर्मोका निर्वाह है और तत्त्वोप्लववादियों जैसे वावदूकोंका उत्तर तो अनेकान्तवादसे ही सही-सही दिया जा सकता है। विभिन्न अपेक्षाओंसे वस्तुको विभिन्नरूपोंमें देखा जाना ही अनेकान्ततत्वकी रूपरेखा है। ये महाशय अपने कुविकल्पजालमें मस्त होकर दिगम्बरोंको मूर्ख कहते हुए अनेक भण्ड वचन लिखनेमें नहीं चूके ! तत्त्वोपप्लवकार यही तो कहना चाहते हैं कि 'वस्तु न नित्य हो सकती है, न अनित्य, न उभय, और न अवाच्य / यानी जितने एकान्त प्रकारोंसे वस्तुका विवेचन करते हैं उन-उन रूपोंमें वस्तुका स्वरूप सिद्ध नहीं हो पाता।' इसका सीधा तात्पर्य यह निकलता है कि 'वस्तु अनेकान्तरूप है, उसमें अनन्तधर्म हैं / अतः उसे किसी एकरूपमें नहीं कहा जा सकता।' अनेकान्तदर्शनकी भूमिका भी यही है कि वस्तु मूलतः अनन्तधर्मात्मक है, उसका पूर्णरूप अनिर्वचनीय है, अत. उसका एक-एक धर्मसे कथन करते समय स्याद्वाद-पद्धतिका ध्यान रखना चाहिये, अन्यथा तत्त्वोपप्लववादीके द्वारा दिये गये दूषण आयेंगे। यदि इन्होंने वस्तुके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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