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________________ स्याद्वाद 415 श्री जयराशिभट्ट और अनेकान्तवाद : तत्त्वोपप्लवसिंह एक खण्डनग्रन्थ है। इसमें प्रमाण, प्रमेय आदि तत्त्वोंका उपप्लव ही निरूपित है / इसके कर्ता जयराशि भट्ट हैं / वे दिगम्बरों द्वारा आत्मा और सुखादिका भेदाभेद मानने में आपत्ति उठाते हैं कि “एकत्व अर्थात् एकस्वभावता / एकस्वभावता माननेपर नानास्वभावता नहीं हो सकती, क्योंकि दोनोंमें विरोध है / उसीको नित्य और उसीको अनित्य कैसे कहा जा सकता है ? पररूपसे असत्त्व और स्वरूपसे सत्त्व मानना भी उचित नहीं है; क्योंकि-वस्तु तो एक है। यदि उसे अभाव कहते हैं तो भाव क्या होगा ? यदि पररूपसे अभाव कहा जाता है; तो स्वरूपकी तरह घटमें पररूपका भी प्रवेश हो जायगा। इस तरह सब सर्वरूप हो जायँगे। यदि पररूपका अभाव कहते हैं। तो जब पररूपका अभाव है तो वह अनुपलब्ध हुआ, तब आप उस पररूपके द्रष्टा कैसे हुए ? और कैसे उसका अभाव कर सकते हैं ? यदि कहा जाय कि पररूपसे वस्तु नहीं मिलती अतः परका सद्भाव नहीं है, तो अभावरूपसे भी निश्चय नहीं है अतः परका अभाव नहीं कहा जा सकता / यदि पररूपसे वस्तु उपलब्ध होती है तो अभावग्राही ज्ञानसे अभाव ही सामने रहेगा, फिर भावका ज्ञान नहीं हो सकेगा।" आदि / यह एक सामान्य मान्यता रूढ़ है कि एक वस्तु अनेक कैसे हो सकती है ? पर जब वस्तुका स्वरूप ही असंख्य विरोधोंका आकार है तब उससे इनकार कैसे किया जा सकता है ? एक ही आत्मा हर्ष, विषाद, सुख, दुःख, ज्ञान, अज्ञान आदि अनेक पर्यायोंको धारण करनेवाला प्रतीत होता है। एक कालमें वस्तु अपने स्वरूपसे है यानी उसमें अपना स्वरूप पाया जाता है, परका स्वरूप नहीं। पररूपका नास्तित्व यानी उसका भेद तो प्रकृत वस्तुमें मानना ही चाहिये, अन्यथा स्व और परका विभाग कैसे होगा ? उस नास्तित्वका निरूपण परपदार्थकी दृष्टि से होता 1. “एक हीदं वस्तूपलभ्यते / तच्चेदभावः किमिदानीं भावो भविष्यति ? यद्यदि पररूपतया भावः; तदा घटस्य पटरूपता प्राप्नोति / यथा पररूपतया भावत्वेऽङ्गीक्रियमाणे पररूपानु वेशः तथा अभावत्वेऽप्यङ्गीक्रियमाणे पररूपानुप्रवेश एव, ततश्च सर्व सर्वात्मकं स्यात् / अथ पररूपस्य भावः, तदविरोधि त्वेकत्वं तस्याभावः। नहि तस्मिन् सति भवान् तस्यानुपलब्धेद्रष्टा, अन्यथा हि आत्मनोऽप्यभावो भवेत् / अथ आत्मसत्ताऽविरोधित्वेन स्वात्मनोऽभावो न भवत्येव; परसत्ताविरोधित्वात् परस्याप्यभावो न भवति / अथापराकारतया नोपलभ्यते तेन परस्य भावो न भवति, अभावाकारतया चानुपलब्धेः परस्याभावोऽपि न भवेत् / अथ अभावाकारतया उपलभ्यते; तदा भावोऽन्यो नास्ति, अभावाकारान्तरितत्वात् , अभावस्वभावावगाहिना अवबोधेन अभाव एव द्योतितो न भावः / ..." -तत्त्वोप० पृ० 75-79 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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