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________________ 414 स्याद्वाद भी सके, पर जैन तत्त्वज्ञानका आधार बिलकुल जुदा है / वह वास्तव-बहुत्ववादी है और प्रत्येक परमाणु को स्वतंत्र द्रव्य मानता है। अनेक द्रव्योंमें सादृश्यमूलक एकत्व उपचरित है, आरोपित है और काल्पनिक है। रह जाती है एक द्रव्यकी बात; सो उसके एकत्वका लोप स्वयं बौद्ध भी नहीं कर सकते / निर्वाणमें जिस बौद्धपक्षने चित्तसन्ततिका सर्वथा उच्छेद माना है उसने दर्शनशास्त्रके मौलिक आधारभूत नियमका ही लोप कर दिया है / चित्तसन्तति स्वयं अपनेमें 'परमार्थसत्' है। वह कभी भी उच्छिन्न नहीं हो सकती। बुद्ध स्वयं उच्छेदवादके उतने ही विरोधी थे, जितने कि उपनिषत्प्रतिपादित शाश्वतवादके / बौद्धदर्शनकी सबसे बड़ी और मोटी भूल यह है कि उसके एक पक्षने निर्वाण अवस्थामें चित्तसन्ततिका सर्वथा उच्छेद मान लिया है। इसी भयसे बुद्धने स्वयं निर्वाणको अव्याकृत कहा था, उसके स्वरूपके सम्बन्धमें भाव या अभाव किसी रूपमें उनने कोई उत्तर नहीं दिया था। बुद्धके इस मौनने ही उनके तत्त्वज्ञानमें पीछे अनेक विरोधी विचारोंके उदयका अवसर उपस्थित किया है / विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि और अनेकान्तवाद विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि' (परि० 2 खं० 2) टीकामें निर्ग्रन्थादिके मतके रूपसे भेदाभेदवादका पूर्वपक्ष करके दूषण दिया है कि "दो धर्म एक धर्मीमें असिद्ध हैं।" किन्तु जब प्रतीतिके बलसे उभयात्मकता सिद्ध होती है, तब मात्र 'असिद्ध' कह देनेसे उनका निषेध नहीं किया जा सकता। इस सम्बन्धमें पहिले लिखा जा चुका है। आश्चर्य तो इस बातका है कि एक परम्पराने जो दूसरेके मतके खंडनके लिये 'नारा' लगाया, उस परम्पराके अन्य विचारक भी आँख मूंदकर उसी 'नारे' को बुलन्द किये जाते हैं ! वे एक बार भी रुककर सोचनेका प्रयत्न ही नहीं करते / स्याद्वाद और अनेकान्तके सम्बन्धमें अब तक यही होता आया है। . ___ इस तरह स्याद्वाद और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक परिणामवादमें जितने भी दूषण बौद्ध दर्शनके ग्रन्थोंमें देखे जाते हैं वे तत्त्वका विपर्यास करके ही थोपे गये हैं, और आज भी वैज्ञानिक दृष्टिकोणकी दुहाई देनेवाले मान्य दर्शनलेखक इस सम्बन्धमें उसी पुरानी रूढिसे चिपके हुए हैं ! यह महान् आश्चर्य है ! 1. 'सद्भता धर्माः सत्तादिधमैंः समाना भिन्नाश्चापि, यथा निर्यन्थादीनाम्। तन्मतं न समञ्जसम् / कस्मात् ? न भिन्नाभिन्नमतेऽपि पूर्ववत् भिन्नाभिन्नयोर्दोषभावात् / ........ उभयोरेकस्मिन् असिद्धत्वात् / ..... भिन्नाभिन्नकल्पना न सद्भूतं न्यायासिद्धं सत्याभासं गृहीतम् / ' -विज्ञप्ति० परि० 2 ख० 2 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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