________________ जैनदर्शन 413 होता है वह व्यवहारके लिये ही है। यह सादृश्य बहुतसे अवयवों या गुणोंकी समानता है और यह प्रत्येकव्यक्तिनिष्ठ होता है, उभयनिष्ठ या अनेकनिष्ठ नहीं। गौका सादृश्य गवयनिष्ठ है और गवयका सादृश्य गौनिष्ठ है / इस अर्थमें सादृश्य उस वस्तुका परिणमन ही हुआ, अतएव उससे वह अभिन्न है। ऐसा कोई सादृश्य नहीं है जो दो वस्तुओंमें अनुस्यूत रहता हो। इसकी प्रतीति अवश्य परसापेक्ष है, पर स्वरूप तो व्यक्तिनिष्ठ ही है। अतः जैनोंके द्वारा माना गया तिर्यकसामान्य जिससे कि भिन्न-भिन्न द्रव्योंमें सादृश्यमूलक अभेदव्यवहार होता है, अनेकानुगत न होकर प्रत्येकमें परिसमाप्त है। इसको निमित्त बनाकर जो अनेक व्यक्तियोंमें अभेद कहा जाता है वह काल्पनिक है, वास्तविक नहीं। ऐसी दशामें दही और ऊँटमें अभेदका व्यवहार एक पुद्गलसामान्यकी दृष्टिसे जो किया जा सकता है वह औपचारिक कल्पना है। ऊँट चेतन है और दही अचेतन, अतः उन दोनोंमें पुद्गलसामान्यकी दृष्टिसे अभेद व्यवहार करना असंगत ही है। ऊँटके शरीरके और दहीके परमाणुओंसे रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवत्त्वरूप सादृश्य मिलाकर अभेदकी कल्पना करके दूषण देना भी उचित नहीं है; क्योंकि इस प्रकारके काल्पनिक अतिप्रसंगसे तो समस्त व्यवहारोंका ही उच्छेद हो जायगा। सादृश्यमूलक स्थूलप्रत्यय तो बौद्ध भी मानते ही हैं। तात्पर्य यह कि जैनी तत्त्वव्यवस्थाको समझे बिना ही यह दूषण धर्मकीर्तिने जैनोंको दिया है। इस स्थितिको उनके टीकाकार आचार्य कर्णक गोमिने ताड़ लिया, अतएव वे वहीं शंका करके लिखते हैं कि “शंका-जब कि दिगम्बरोंका यह दर्शन नहीं है कि 'सर्व सर्वात्मक है या सर्व सर्वात्मक नहीं है' तो आचार्यने क्यों उनके लिये यह दूषण दिया ? समाधान-सत्य है, यथादर्शन अर्थात् जैसा उनका दर्शन है उसके अनुसार तो 'अत्यन्तभेदाभेदौ च स्याताम्' यही दूषण आता है' प्रकृत दूषण नहीं।" ___ बात यह है कि सांख्यका प्रकृतिपरिणामवाद और उसकी अपेक्षा जो भेदाभेद है उसे जैनोंपर लगाकर इन दार्शनिकोंने जैनदर्शनके साथ न्याय नहीं किया / सांख्य एक प्रकृतिकी सत्ता मानता है। वही प्रकृति दहीरूप भी, बनती है और ऊँट रूप भी, अतः एक प्रकृतिरूपसे दही और ऊँटमें अभेदका प्रसंग देना उचित हो 1. "ननु दिगम्बराणां सर्व सर्वात्मकं, न सर्व सर्वात्मकम्' इति नैतद्दर्शनम्, तत्किमर्थमिद मार्चायेंणोच्यते ? सत्यं, यथादर्शनं तु 'अत्यन्तभेदाभेदौ च स्याताम्' इत्यादिना पूर्वमेब दूषितम् / " -प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 339 / Jain Educationa International www.jainelibrary.org For Personal and Private Use Only