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________________ 430 जैनदर्शन अपने आधारभूत धर्मीकी अपेक्षा धर्म होता है वही अपने आधेयभूत धर्मोकी अपेक्षा धर्मी बन जाता है। जब वस्तु उपर्युक्त रूपसे लोकव्यवहार तथा प्रमाणसे निर्बाध प्रतीतिका विषय हो रही है तब उसे अनवधारणात्मक, अव्यवस्थित या अप्रतीत कहना भी साहसकी ही बात है। और जब प्रतीत है तब अभाव तो हो ही नहीं सकता। ___इस तरह इन आठ दोषोंका परिहार अकलंक, हरिभद्र, सिंहगणिक्षमाश्रमण आदि सभी आचार्योंने व्यवस्थित रूपसे किया है। वस्तुतः बिना समझे ऐसे दूषण देकर जैन तत्त्वज्ञानके साथ विशेषतः स्याद्वाद और सप्तभंगीके स्वरूपके साथ बड़ा अन्याय हुआ है। ____भ० महावीर अपनेमें अनन्तधर्मा वस्तुके सम्बन्धमें व्यवस्थित और पूर्ण निश्चयवादी थे। उनने न केवल वस्तुका अनेकान्तस्वरूप ही बताया किन्तु उसके जानने देखनेके उपाय-नयदृष्टियाँ और उसके प्रतिपादनका प्रकार ( स्याद्वाद) भी बताया। यही कारण है कि जैनदर्शन ग्रन्थोंमें उपेयतत्त्वके स्वरूपनिरूपणके साथ-ही-साथ उपायतत्त्वका भी उतना ही विस्तृत और साङ्गोपाङ्ग वर्णन मिलता है। अतः स्याद्वाद न तो संशयवाद है, न कदाचित्वाद, न किंचित्वाद, न संभववाद और न अभीष्टवाद; किन्तु खरा अपेक्षाप्रयुक्त निश्चयवाद है। इसे संस्कृतमें 'कथञ्चित्वाद' शब्दसे कहा है, जो एक सुनिश्चित दृष्टिकोणका प्रतीक है। यह संजयके अज्ञान या विक्षेपवादसे तो हर्गिज नहीं निकला है; किन्तु संजयको जिन बातोंका अज्ञान था और बुद्ध जिन प्रश्नोंको अव्याकृत कहते थे, उन सबका सुनिश्चित दृष्टिकोणोंसे निश्चय करनेवाला अपेक्षावाद है / समन्वयको पुकार : आज भारतरत्न डॉ० भगवान्दासजी जैसे मनीषी समन्वयकी आवाज बुलन्द कर रहे हैं। उनने अपने 'दर्शनका प्रयोजन', 'समन्वय' आदि ग्रन्थोंमें इस समन्वय-तत्त्वकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। किन्तु वस्तुको अनन्तधर्मा माने बिना तथा स्याद्वाद-पद्धतिसे उसका विचार किये बिना समन्वयके सही स्वरूपको नहीं पाया जा सकता। जैन दर्शनकी भारतीय संस्कृतिको यही परम देन है जो इसने वस्तुके विराट स्वरूपको सापेक्ष दृष्टिकोणसे देखना सिखाया / जैनाचार्योंने इस समन्वय-पद्धतिपर ही संख्याबद्ध ग्रन्थ लिखे हैं / आशा है इस अहिंसाधार और मानस अहिंसाके अमृतमय प्राणभूत स्याद्वादका जीवनको संवादी बनानेमें यथोचित उपयोग किया जायगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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