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________________ सामान्यावलोकन कुन्दान्वयके छह आचार्योंका उल्लेख है। यह ताम्रपत्र शकसंवत् ३८८ में लिखा गया था। उन छह आचार्योंका समय यदि १५० वर्ष भी मान लिया जाय तो शक संवत् २३८ में कुन्दकुन्दान्वयके गुणनन्दि आचार्य मौजूद थे। कुन्दकुन्दान्वय प्रारम्भ होनेका समय स्थूल रूपसे यदि १५० वर्ष पूर्व मान लिया जाता है तो लगभग विक्रमकी पहली और दूसरी शताब्दी कुन्दकुन्दका समय निश्चित होता है। डॉक्टर उपाध्येने इनका समय विक्रमकी प्रथम शताब्दी ही अनुमान किया है । आचार्य कुन्दकुन्दके पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार और समयसार आदि ग्रन्थोंमें जैनदर्शनके उक्त चार मुद्दोंके न केवल बीज ही मिलते हैं, किन्तु उनका विस्तृत विवेचन और साङ्गोपाङ्ग व्याख्यान भी उपलब्ध होता है, जैसा कि इस ग्रन्थके उन-उन प्रकरणोंसे स्पष्ट होगा। सप्तभंगी, नय, निश्चय व्यवहार, पदार्थ, तत्त्व, अस्तिकाय आदि सभी विषयों पर आ० कुन्दकुन्दकी सफल लेखनी चली है । अध्यात्मवादका अनूठा विवेचन तो इन्हींकी देन है। श्वेताम्बर आगम-ग्रन्थोंमें भी उक्त चार मुद्दोंके पर्याप्त बीज यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं। इसके लिए विशेषरूपसे भगवती, सूत्रकृतांग, प्रज्ञापना, राजप्रश्नीय, नन्दी, स्थानांग, समवायांग और अनुयोगद्वार द्रष्टव्य हैं । ____ भगवतीसूत्रके अनेक प्रश्नोत्तरोंमें नय, प्रमाण, सप्तभंगी, अनेकान्तवाद आदिके दार्शनिक विचार हैं। ___ सूत्रकृतांगमें भूतवाद और ब्रह्मवादका निराकरण करके पृथक् आत्मा तथा उसका नानात्व सिद्ध किया है। जीव और शरीरका पृथक् अस्तित्व बताकर कर्म और कर्मफलकी सत्ता सिद्ध की है । जगत्को अकृत्रिम और अनादि-अनन्त प्रतिष्ठित • किया है। तत्कालीन क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवादका निराकरण कर विशिष्ट क्रियावादकी स्थापना की गई है। प्रज्ञापनामें जीवके विविध भावोंका निरूपण है । राजप्रश्नीयमें श्रमण केशीके द्वारा राजा प्रदेशीके नास्तिकवादका निराकरण अनेक युक्तियों और दृष्टान्तोंसे किया गया है । नन्दीसूत्र जैनदृष्टिसे ज्ञानचर्चा करनेवाली अच्छी रचना है। स्थानांग और समवायांगकी रचना बौद्धोंके अंगुत्तरनिकायके ढंगकी है। इन दोनोंमें आत्मा, पुद्गल, ज्ञान, नय और प्रमाण आदि विषयोंकी चर्चा आई है। "उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा” यह मातृका-त्रिपदी स्थानांगमें उल्लिखित हैं, जो उत्पादा१. देखो, प्रवचनसारकी प्रस्तावना। २. देखो, जैनदार्शनिक साहित्यका सिंहावलोकन, पृष्ठ ४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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