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________________ जैनदर्शन इस ६८३ वर्षके बाद ही धवला और जयधवलाके उल्लेखानुसार धरसेनाचार्यको सभी अंगों और पूर्वोके एक देशका ज्ञान आचार्य परम्परासे प्राप्त हुआ था । किन्तु नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावलीसे इस बातका समर्थन नहीं होता । उसमें लोहाचार्य तकका काल ५६५ वर्ष दिया है । इसके बाद एक अंगके धारियोंमें अर्हद्बलि, माघनन्दि, धरसेन, भूतबलि और पुष्पदन्त इन पाँच आचार्यों को गिनाकर उनका काल क्रमशः २८, २१, १९, ३० और २० वर्ष दिया है । इस हिसाब से पुष्पदन्त और भूतबलिका समय ६८३ वर्षके भीतर ही आ जाता है । विक्रम संवत् १५५६ में लिखी गई बृहत् टिप्पणिका' नामकी सूची में धरसेन द्वारा वीर निर्वाण संवत् ६०० में बनाये गये "जोणिपाहुड" ग्रन्थका उल्लेख है । इससे भी उक्त समयका समर्थन होता है । यह स्मरणीय है कि पुष्पदन्त भूतबलि दृष्टिवाद अन्तर्गत द्वितीय अग्रायणी पूर्वसे षट्खण्डागमकी रचना की है और गुणधराचार्यने ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्वकी दशम वस्तु-अधिकारके अन्तर्गत तीसरे पेज्ज- दोषप्राभृतसे कसायप्राभृतकी रचना की है । इन सिद्धान्त-ग्रन्थों में जैनदर्शनके उक्त मूल मुद्दोंके सूक्ष्म बीज बिखरे हुए हैं । स्थूल रूपसे इनका समय वीर निर्वाण संवत् ६१४ यानी विक्रमकी दूसरी शताब्दी ( वि० सं० १४४ ) और ईसाकी प्रथम ( सन् ८७ ) शताब्दी सिद्ध होता है । १२ युगप्रधान आचार्य कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी ३री शताब्दीके बाद तो किसी भी तरह नहीं लाया जा सकता; क्योंकि मरकराके ताम्रपत्रमें कुन्द और लोह ये चार आचार्य आचाराङ्गके धारी हुए। ये सभी आचार्य शेष ग्यारह अंग और १४ पूर्वके एकदेशके ज्ञाता थे । इनका समय ११८ वर्ष होता है अर्थात् गौतम गणधर से लेकर लोहाचार्य पर्यन्त कुल कालका परिमाण ६८३ वर्ष होता है । तीन केवलज्ञानी ६२ बासठ वर्ष, पाँच श्रुतकेवली १०० सौ वर्ष, ग्यारह ग्यारह अंग और दश पूर्वके धारी १८३ वर्ष, पाँच, ग्यारह अंगके धारी २२० वर्ष, चार. आचारांग धारी ११४ वर्ष, कुल ६८३ वर्ष । हरिवंशपुराण, धवला, जयधवला, आदिपुराण तथा श्रुतावतार आदिमें भी लोहाचार्य तकके आचार्योंका काल यही ६८३ वर्ष दिया गया है। देखो, जयधबला प्रथम माग, प्रस्तावना पृष्ठ ४७-५० । १. “ योनिप्राभृतम् वीरात् ६०० धारसेनम् ” – बृहट्टिप्पणिका, जैन सा० सं० १-२ परिशिष्ट । २. देखो, धवला प्रथम भाग, प्रस्तावना पृष्ठ २३ - ३० । ३. धवला प्र० भा० प्र० पृष्ठ ३५ और जयधवला, प्रस्तावना पृष्ठ ६४ । 7 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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