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________________ सामान्यावलोकन काल-विभाग : हमें तो यहाँ यह देखना है कि दिगम्बर परम्पराके सिद्धान्त-ग्रन्थोंमें और श्वेताम्बर परम्परासम्मत आगमोंमें जैनदर्शनके क्या बीज मौजूद हैं ? मैं पहिले बता आया हूँ कि - उत्पादादित्रिलक्षण परिणामवाद, अनेकान्तदृष्टि, स्याद्वाद भाषा तथा आत्मद्रव्यकी स्वतन्त्र सत्ता इन चार महान् स्तम्भोंपर जैनदर्शनका भव्य प्रासाद खड़ा हुआ है । इन चारोंके समर्थक, विवेचक और व्याख्या करनेवाले प्रचुर उल्लेख दोनों परम्पराके आगमोंमें पाये जाते हैं । हमें जैन दार्शनिक साहित्यका सामान्यावलोकन करते समय आजतक उपलब्ध समग्र साहित्यको ध्यान में रखकर ही कालविभाग इस प्रकार करना होगा ' । १ : वि० ६वीं शती तक 10 वि० : री से ८वीं तक १. सिद्धान्त - आगमकाल २. अनेकान्त-स्थापनकाल ३. प्रमाणव्यवस्था -युग ४. नवीनन्याय-युग वि० ८वीं से १७वीं तक वि० १८वीं से : : १६ १. सिद्धान्त - आगमकाल , दिगम्बर सिद्धान्त-ग्रन्थोंमें षट्खंडागम, महाबंध कषायप्राभृत और कुन्दकुन्दाचार्य के पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार आदि मुख्य हैं । षट्खंडागमके कर्ता आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि हैं और कषायप्राभृतके रचयिता गुणधर आचार्य | आचार्य यतिवृषभने त्रिलोकप्रज्ञप्ति ( गाथा ६६ से ८२ ) में भगवान् महावीरके निर्वाणके बादकी आचार्य - परम्परा और उसकी ६८३ वर्षको कालगणना है । Jain Educationa International १. युगका इसी प्रकारका विभाजन दार्शनिकप्रवर पं० सुखलालजीने भी किया है, जो विवेचन के लिए सर्वथा उपयुक्त है । २. जिस दिन भगवान् महावीरको मोक्ष हुआ, उसी दिन गौतम गणधरने केवलज्ञान पद पाया । जब गौतम स्वामी सिद्ध हो गये, तब सुधर्मा स्वामी केवली हुए । सुधर्मा स्वामीके मोक्ष हो जानेके बाद जम्बूस्वामी अन्तिम केवली हुए । इन के वलियोंका काल ६२ वर्ष है । इनके बाद नन्दी, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली हुए। इन पाँचोंका काल १०० वर्ष होता है। इनके बाद विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और सुधर्म ये ११ आचार्य क्रम से दशपूर्व के धारियोंमें विख्यात हुए । इनका काल १८३ वर्ष है । इनके बाद नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस ये पाँच आचार्य ११ ग्यारह अंगके धारी हुए । इनके बाद भरत क्षेत्र में कोई ११ अंगका धारी नहीं हुआ । तदनन्तर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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