SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन जिनकल्पका उच्छेद मानने से' तो दिगम्बर श्वेताम्बर मतभेदको पूरा-पूरा बल मिला है । इस मतभेदके कारण श्वेताम्बर परम्परामें वस्त्रके साथ-ही-साथ उपधियोंकी संख्या चौदह तक हो गई । यह वस्त्र ही श्रुतविच्छेदका मूल कारण हुआ । १० सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० बेचरदासजीने अपनी 'जैन साहित्यमें विकार' पुस्तक ( पृष्ट ४० ) में ठीक ही लिखा है कि- " किसी वैद्यने संग्रहणी के रोगीको दवाके रूपमें अफीम सेवन करनेकी सलाह दी थी, किन्तु रोग दूर होनेपर भी जैसे उसे अफ़ीमकी लत पड़ जाती है और वह उसे नहीं छोड़ना चाहता वैसी ही दशा इस आपवादिक वस्त्र की हुई ।" यह निश्चित है कि भगवान् महावीरको कुलाम्नायसे अपने पूर्व तीर्थंकर पार्श्वनाथकी आचार -परम्परा प्राप्त थी । यदि पार्श्वनाथ स्वयं सचेल होते और उनकी परम्परामें साधुओंके लिए वस्त्रकी स्वीकृति होती तो महावीर स्वयं न तो नग्न दिगम्बर रहकर साधना करते और न नग्नताको साधुत्वका अनिवार्य अंग मानकर उसे व्यावहारिक रूप देते । यह सम्भव है कि पार्श्वनाथकी परम्पराके साधु मृदुमार्गको स्वीकार कर आखिर में वस्त्र धारण करने लगे हों और आप - वादिक वस्त्रको उत्सर्ग मार्ग में दाखिल करने लगे हों, जिसकी प्रतिध्वनि उत्तराध्ययनके केशीगौतम संवादमें आई है । यही कारण है कि ऐसे साधुओंकी 'पासत्थ' शब्द विकत्थना की गई है । भगवान् महावीरने जब सर्वप्रथम सर्वसावद्य योगका त्यागकर समस्त परिग्रहको छोड़ दीक्षा ली तब उनने लेशमात्र भी परिग्रह अपने पास नहीं रखा था । वे परम दिगम्बर होकर ही अपनी साधनामें लीन हुए थे । यदि पार्श्वनाथके सिद्धान्तमें वस्त्रकी गुञ्जाइश होती और उसका अपरिग्रह महाव्रतसे मेल होता तो सर्वप्रथम दीक्षांके समय ही साधक अवस्थामें न तो वस्त्रत्यागकी तुक थी और न आवश्यकता ही । महावीरके देवदृष्यकी कल्पना करके वस्त्रकी अनिवार्यता और औचित्यकी संगति बैठाना आदर्श-मार्गको नीचे ढकेलना है । पार्श्वनाथके चातुर्याममें अपरिग्रहकी पूर्णता तो स्वीकृत थी ही । इसी कारणसे सचेलत्व समर्थक श्रुतको दिगम्बर परम्पराने मान्यता नहीं दी और न उनकी वाचनाओं में वे शामिल हुए । अस्तु, १. “मण - परमोहि - पुलाए आहारग-खवग-उवसमे कप्पे । संजम तिय- केवल सिज्झणा य जंबुम्मि बुच्छिण्णा || २६६३ ॥ " - बिशेषा० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy