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जैनदर्शन
दित्रयात्मकताके सिद्धान्तका निरपवाद प्रतिपादन करती है। अनुयोगद्वारमें प्रमाण और नय तथा तत्त्वोंका शब्दार्थप्रक्रियापूर्वक अच्छा वर्णन है । तात्पर्य यह कि जैनदर्शनके मुख्य स्तम्भोंके न केवल बीज ही, किन्तु विवेचन भी इन आगमोंमें मिलते हैं।
पहले मैंने जिन चार मुद्दोंकी चर्चा की है उन्हें संक्षेपमें ज्ञापकतत्त्व या उपायतत्त्व और उपेयतत्त्व इन दो भागोंमें बांटा जा सकता है। सामान्यावलोकनके इस प्रकरणमें इन दोनोंकी दृष्टिसे भी जैनदर्शनका लेखा-जोखा कर लेना उचित है।
ज्ञापकतत्त्व :
सिद्धान्त-आगमकालमें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान ये पाँच ज्ञान मुख्यतया ज्ञेयके जाननेके साधन माने गये हैं। इनके साथ ही नयोंका स्थान भी अधिगमके उपायोंमें है। आगमिक कालमें ज्ञानकी सत्यता और असत्यता ( सम्यक्त्व और मिथ्यात्व ) बाह्य पदार्थोंको यथार्थ जानने या न जाननेके ऊपर निर्भर नहीं थी। किन्तु जो ज्ञान आत्मसंशोधन और अन्ततः मोक्षमार्गमें उपयोगी सिद्ध होते थे वे सच्चे और जो मोक्षमार्गोपयोगी नहीं थे वे झूठे कहे जाते थे। लौकिक दृष्टिसे शत-प्रतिशत सच्चा भी ज्ञान यदि मोक्षमार्गोपयोगी नहीं है तो वह झूठा है और लौकिक दृष्टिसे मिथ्याज्ञान भी यदि मोक्षमार्गोपयोगी है तो वह सच्चा कहा जाता था। इस तरह सत्यता और असत्यताकी कसौटी बाह्य पदार्थों के अधीन न होकर मोक्षमार्गोपयोगितापर निर्भर थी। इसी लिये सम्यग्दृष्टिके सभी ज्ञान सच्चे और मिथ्यादृष्टिके सभी ज्ञान झूठे कहलाते थे। वैशेषिकसूत्रमें विद्या
और अविद्या शब्दके प्रयोग बहुत कुछ इसी भूमिकापर हैं। ___इन पाँच ज्ञानोंका प्रत्यक्ष और परोक्षरूप में विभाजन भी पूर्व युगमें एक भिन्न ही आधारसे था। वह आधार था आत्ममात्रसापेक्षत्व । अर्थात् जो ज्ञान आत्ममात्रसापेक्ष थे वे प्रत्यक्ष तथा जिनमें इन्द्रिय और मनकी सहायता अपेक्षित होती थी वे परोक्ष थे । लोकमें जिन इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको प्रत्यक्ष कहते हैं वे ज्ञान आगमिक परम्परामें परोक्ष थे। कुन्दकुन्द और उमास्वाति :
आ० उमास्वाति या उमास्वामी ( गृद्धपिच्छ )का तत्त्वार्थसूत्र जैनधर्मका आदि संस्कृत सूत्रग्रन्थ है। इसमें जीव, अजीव आदि सात तत्त्वोंका विस्तारसे विवेचन है । जैनदर्शनके सभी मुख्य मुद्दे इसमें सूत्रित हैं। इनके समयकी उत्तरावधि विक्रमकी तीसरी शताब्दी है। इनके तत्त्वार्थसूत्र और आ० कुन्दकुन्दके प्रवचन
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