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________________ 408 जैनदर्शन पोहरूप कह भी लीजिए पर 'अगोव्यावृत्ति गोव्यक्तियोंमें ही क्यों पायी जाती है, अश्वादिमें क्यों नहीं' इसका नियामक गोमें पाया जानेवाला सादृश्य ही हो सकता है। सादृश्य दो पदार्थों में पाया जानेवाला एक धर्म नहीं है, किन्तु प्रत्येकनिष्ठ है / जितने पररूप हैं उनकी व्यावृत्ति यदि वस्तुमें पायी जाती है, तो उतने धर्मभेद माननेमें क्या आपत्ति है ? प्रत्येक वस्तु अपने अखंडरूपमें अविभागी और अनिर्वाच्य होकर भी जब उन-उन धर्मोकी अपेक्षा निर्देश्य होती है तो उसकी अभिधेयता स्पष्ट ही है। वस्तुका अवक्तव्यत्व धर्म स्वयं उसकी अनेकान्तात्मकताको पुकारपुकारकर कह रहा है। वस्तुमें इतने धर्म, गुण और पर्याय हैं कि उसके पूर्ण स्वरूपको हम शब्दोंसे नहीं कह सकते और इसी लिये उसे अवक्तव्य कहते हैं / आ० शान्तिरक्षित स्वयं क्षणिक प्रतीत्यसमुत्पादमें अनाद्यनन्त और असंक्रान्ति विशेषण देकर उसकी सन्ततिनित्यता स्वीकार करते हैं, फिर भी द्रव्यके नित्यानित्यात्मक होनेमें उन्हें विरोधका भय दिखाई देता है ! किमाश्चर्यमतः परम् !! अनन्त स्वलक्षणोंकी परस्पर विविक्तसत्ता मानकर पररूप-नास्तित्वसे नहीं बचा जा सकता। मेचकरत्न या नरसिंहका दृष्टान्त तो स्थूल रूपसे ही दिया जाता है, क्योंकि जब तक मेचकरत्न अनेकाणुओंका कालान्तरस्थायी संघात बना हुआ है और जब तक उनमें विशेष प्रकारका रासायनिक मिश्रण होकर बन्ध है; तब तक मेचकरत्नकी, सादृश्यमूलक पुञ्जके रूपमें ही सही, एक सत्ता तो है ही और उसमें उस समय अनेक रूपोंका प्रत्यक्ष दर्शन होता ही है। नरसिंह भी इसी तरह कालान्तरस्थायी संघातके रूपमें एक होकर भी अनेकाकारके रूपमें प्रत्यक्षगोचर होता है। तत्त्वसं० त्रैकाल्यपरीक्षा ( पृ० 504 ) में कुछ बौद्धकदेशियोंके मत दिये हैं, जो त्रिकालवर्ती द्रव्यको स्वीकार करते थे। इनमें भदन्त धर्मत्रात भावान्यथावादी थे / वे द्रव्यमें परिणाम न मानकर भावमें परिणाम मानते थे। जैसे कटक, कुंडल, केयूरादि अवस्थाओंमें परिणाम होता है द्रव्यस्थानीय सुवर्णमें नहीं, उसी तरह धर्मों में अन्यथात्व होता है, द्रव्यमें नहीं। धर्म ही अनागतपनेको छोड़कर वर्तमान बनता है और वर्तमानको छोड़कर अतीतके गह्वरमें चला जाता है / भदन्त घोषक लक्षणान्यथावादी थे। एक ही धर्म अतीतादि लक्षणोंसे युक्त होकर अतीत, अनागत और वर्तमान कहा जाता है / भदन्त वसुमित्र अवस्थान्यथावादी थे। धर्म अतीतादि भिन्न-भिन्न अवस्थाओंको प्राप्त कर अतीतादि कहा जाता है, द्रव्य तो त्रिकालानुयायी रहता है। जैसे 1. तत्वसं० श्लो० 4 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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