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________________ स्थाद्वाद निमित्त; तो उसमें ये दोनों धर्म विभिन्न हैं या नहीं ? यदि रूपमें एक ही स्वभावसे उपादान और निमित्तत्वकी व्यवस्था की जाती है ? तो बताइए एक ही स्वभाव दो रूप हुआ या नहीं ? उसने दो कार्य किये या नहीं ? तो जिस प्रकार एक ही स्वभाव रूपकी दृष्टिसे उपादान है और रसकी दृष्टिसे निमित्त, उसी प्रकार विभिन्न अपेक्षाओंसे एक ही वस्तुमें अनेक धर्म माननेमें क्यों विरोधका हल्ला किया जाता है ? बौद्ध कहते हैं कि "दृष्ट पदार्थके अखिल गुण दृष्ट हो जाते हैं, पर भ्रान्तिसे उनका निश्चय नहीं होता, अतः अनुमानकी प्रवृत्ति होती है।"१ यहाँ प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्पसे नीलस्वलक्षणके नीलांशका निश्चय होनेपर क्षणिकत्व और स्वर्गप्रापणशक्ति आदिका निश्चय नहीं होता, अतः अनुमान करना पड़ता है; तो एक ही नीलस्वलक्षणमें अपेक्षाभेदसे निश्चितत्व और अनिश्चितत्व ये दो धर्म तो मानना ही चाहिए। पदार्थमें अनेकधर्म या गुण मानने में विरोधका कोई स्थान नहीं है, वे तो प्रतीत हैं। वस्तुमें सर्वथा भेद स्वीकार करनेवाले बौद्धोंके यहाँ पररूपसे नास्तित्व माने बिना स्वरूपकी प्रतिनियत व्यवस्था ही नहीं बन सकती / दानक्षणका दानत्व प्रतीत होनेपर भी उसकी स्वर्गदानशक्तिका निश्चय नहीं होता। ऐसी दशामें दानक्षणमें निश्चितता और अनिश्चितता दोनों ही मानना होंगी। एक रूपस्वलक्षण अनादिकालसे अनन्तकाल तक प्रतिक्षण परिवर्तित होकर भी कभी समाप्त नहीं होता, उसका समूल उच्छेद नहीं होता, वह न तो सजातोय रूपान्तर बनता है और न विजातीय रसादि ही। यह उसकी जो अनाद्यनन्त असंकर स्थिति है, उसका क्या नियामक है ? वस्तु विपरिवर्तमान होकर भी जो समाप्त नहीं होती, इसीका नाम ध्रौव्य है जिसके कारण विवक्षित क्षण क्षणान्तर नहीं होता और न सर्वथा उच्छिन्न ही होता है। अतः जब रूपस्वलक्षण रूपस्वलक्षण ही है, रसादि नहीं, रूपस्वलक्षण प्रतिक्षण परिवर्तित होता हुआ भी सर्वथा उच्छिन्न नहीं होता, रूपस्वलक्षण उपादान भी है और निमित्त भी, रूपस्वलक्षण निश्चित भी है और अनिश्चित भी,. रूपस्वलक्षणोंमें सादृश्यमूलक सामान्य धर्म भी है और वह विशेष भी है, रूपस्वलक्षण रूपशब्दका अभिधेय है रसादिका अनभिधेय; तब ऐसी स्थितिमें उसकी अनेकधर्मात्मकता स्वयं सिद्ध है। स्याद्वाद वस्तुकी इसी अनेकान्तात्मकताका प्रतिपादन करनेवाली एक भाषापद्धति है, जो वस्तुका सही-सही प्रतिनिधित्व करती है। आप सामान्यको अन्या१. "तस्माद् दृष्टस्य भावस्य दृष्ट एवाखिलो गुणः। भ्रान्तेनिश्चीयते नेति साधनं संप्रवर्तते ॥"-प्रमाणवा० 3 / 44 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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