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________________ 406 जैनदर्शन बिना विचारे ही विरोधादि दूषण लाद दिये जाते हैं / 'सत् सामान्य से जो सब पदार्थोंको 'एक' कहते हैं वह वस्तुसत् ऐक्य नहीं है, व्यवहारार्थ संग्रहभूत एकत्व है, जो कि उपचरित है, मुख्य नहीं। शब्दप्रयोगकी दृष्टिसे एक द्रव्यमें विवक्षित धर्मभेद और दो द्रव्योंमें रहने वाला परमार्थसत् भेद, दोनों बिलकुल जुदे प्रकारके हैं। वस्तुकी समीक्षा करते समय हमें सावधानीसे उसके वर्णित स्वरूपपर विचार करना चाहिये। शान्तरक्षित और स्याद्वाद : आ० शान्तरक्षितने तत्त्वसंग्रहमें स्याद्वादपरीक्षा ( पृ० 486 ) नामका एक स्वतन्त्र प्रकरण ही लिखा है। वे सामान्यविशेषात्मक या भावाभावात्मक तत्त्वमें दूषण उद्भावित करते हैं कि “यदि सामान्य और विशेषरूप एक ही वस्तु है, तो एक वस्तुसे अभिन्न होनेके कारण सामान्य और विशेषमें स्वरूपसांकर्य हो जायगा। यदि सामान्य और विशेष परस्पर भिन्न हैं और उनसे वस्तु अभिन्न होने जाती है; तो वस्तुमें भेद हो जायगा। विधि और प्रतिषेध परस्पर विरोधी हैं, अतः वे एक वस्तुमें नहीं हो सकते / नरसिंह, मेचकरत्न आदि दृष्टान्त भी ठीक नहीं हैं; क्योंकि वे सब अनेक अणुओंके समूहरूप है, अतः उनका यह स्वरूप अवयवीकी तरह विकल्प-कल्पित है / " आदि / बौद्धाचार्योंकी एक ही दलील है कि एक वस्तु दो रूप नहीं हो सकती। वे सोचें कि जब प्रत्येक स्वलक्षण परस्पर भिन्न हैं, एक दूसरे रूप नहीं है, तो इतना तो मानना ही चाहिए कि रूपस्वलक्षण रूपस्वलक्षणत्वेन 'अस्ति' है और रसादिस्वलक्षणत्वेन 'नास्ति' है, अन्यथा रूप और रस मिलकर एक हो जायेंगे। हम स्वरूप-अस्तित्वको ही पररूपनास्तित्व नहीं कह सकते; क्योंकि दोनोंकी अपेक्षाएँ जुदा-जुदा हैं, प्रत्यय भिन्न-भिन्न हैं और कार्य भिन्न-भिन्न हैं / एक ही हेतु स्वपक्षका साधक होता है और परपक्षका दूषक, इन दोनों धर्मोकी स्थिति जुदा-जुदा है। हेतुमें यदि केवल साधक स्वरूप ही हो; तो उसे स्वपक्षकी तरह परपक्षको भी सिद्ध ही करना चाहिये / इसी तरह दूषकरूप ही हो; तो परपक्षकी तरह स्वपक्षका भी दूषण ही करना चाहिये / यदि एक हेतुमें पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व तीनों रूप भिन्न-मिन्न माने जाते हैं; तो क्यों नहीं सपक्षसत्त्वको ही विपक्षासत्त्व मान लेते ? अतः जिस प्रकार हेतुमें विपक्षासत्त्व सपक्षसत्त्वसे जुदा रूप है उसी तरह प्रत्येक वस्तुमें स्वरूपास्तित्वसे पररूपनास्तित्व जुदा ही स्वरूप है। अन्वयज्ञान और व्यतिरेकज्ञानरूप प्रयोजन और कार्य भी उनके जुदे ही हैं / यदि रूपस्वलक्षण अपने उत्तररूपस्वलक्षणमें उपादान होता है और रसस्वलक्षणमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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