________________ स्याद्वाद 405 अर्चटको इसपर भी आपत्ति है। वे लिखते हैं कि "द्रव्य और पर्यायमें संख्यादिके भेदसे भेद मानना उचित नहीं है / भेद और अभेद पक्षमें जो दोष होते हैं वे दोनों पक्ष मानने पर अवश्य होंगे। भिन्नाभिन्नात्मक एक वस्तुकी संभावना नहीं है, अतः यह वाद दुष्टकल्पित है।" आदि। .. परन्तु जो अभेद अंश है वही द्रव्य है और भेद है वही पर्याय है। सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद नहीं माना गया है, जिससे भेदपक्ष और अभेदपक्षके दोनों दोष ऐसी वस्तुमें आवें। स्थिति यह है कि द्रव्य एक अखंड मौलिक है। उसके कालक्रमसे होनेवाले परिणमन पर्याय कहलाते हैं / वे उसी द्रव्यमें होते हैं / यानी द्रव्य अतीतके संस्कार लेता हुआ वर्तमान पर्यायरूप होता है और भविष्यके लिये कारण बनता है। अखंड द्रव्यको समझाने के लिये उसमें अनेक गुण माने जाते हैं, जो पर्यायरूपसे परिणत होते हैं। द्रव्य और पर्यायमें जो संज्ञाभेद, संख्याभेद, लक्षणभेद और कार्यभेद आदि बताये जाते हैं, वे उन दोनोंका भेद समझानेके लिये हैं, वस्तुत. उनसे ऐसा भेद नहीं है, जिससे पर्यायोंको द्रव्यसे निकालकर जुदा बताया जा सके / पर्यायरूपसे द्रव्य अनित्य है। द्रव्यसे अभिन्न होनेके कारण पर्याय यदि नित्य कही जाती है तो भी कोई दूषण नहीं है; क्योंकि द्रव्यका अस्तित्व किसी-न-किसी पर्यायमें ही तो होता है। द्रव्यका स्वरूप जुदा और पर्यायका स्वरूप जुदा-इसका इतना ही अर्थ है कि दोनोंको पृथक् समझानेके लिये उनके लक्षण जुदा-जुदा होते हैं / कार्य भी जुदे इसलिये हैं कि द्रव्यसे अन्वयज्ञान होता है जब कि पर्यायोंसे व्यावृत्तज्ञान या भेदज्ञान / द्रव्य एक होता है और पर्याय कालक्रमसे अनेक / अतः इन संज्ञा आदिसे वस्तुके टुकड़े माननेपर जो दूषण दिये जाते हैं वे इसमें लागू नहीं होते / हाँ, वैशेषिक जो द्रव्य, गुण और कर्म आदिको स्वतन्त्र पदार्थ मानते हैं, उसके भेदपक्षमें इन दूषणोंका समर्थन तो जैन भी करते हैं। सर्वथा अभेदरूप ब्रह्मवादमें विवर्त, विकार या भिन्नप्रतिभास आदिकी सम्भावना नहीं है। प्रतिपाद्य-प्रतिपादक, ज्ञान-ज्ञेय आदिका भेद भी असम्भव है। इस तरह एक पूर्वबद्ध धारणाके कारण जैनदर्शनके भेदाभेदवादमें 1. 'द्रव्यपर्यायरूपत्वात् द्वैरूप्यं वस्तुनः किल / तयोरेकात्मकत्वेऽपि भेदः संशादिभेदतः // 1 // ... भेदाभेदोक्तदोषाश्च तयोरिष्टौ कथं न वा। प्रत्येकं ये प्रसज्यन्ते द्वयोर्भावे कथन्न ते // 62 // ... न चैवं गम्यते तेन वादोऽयं जाल्मकल्पितः // 45 // ' -हेतुवि० टी० पृ० 104-107 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org