SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 437
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 404 जैनदर्शन बहता रहता है। कोई भी दार्शनिक कैसे इस ठोस सत्यसे इनकार कर सकता है ? इसके बिना विचारका कोई आधार ही नहीं रह जाता। बुद्धको शाश्वतवादसे यदि भय था, तो वे उच्छेदवाद भी तो नहीं चाहते थे / ये तत्त्वको न शाश्वत कहते थे और न उच्छिन्न / उनने उसके स्वरूपको दो 'न' से कहा, जब कि उसका विध्यात्मक रूप उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक ही बन सकता है / बुद्ध तो कहते हैं कि न तो वस्तु नित्य है और न सर्वथा उच्छिन्न जब कि प्रज्ञाकरगुप्त यह विधान करते हैं कि या तो वस्तुको नित्य मानो या क्षणिक अर्थात् उच्छिन्न / क्षणिकका अर्थ उच्छिन्न मैंने जान बूझकर इसलिये किया है कि ऐसा क्षणिक, जिसके मौलिकत्व और असंकरताकी कोई गारंटी नहीं है, उच्छिन्नके सिवाय क्या हो सकता है ? वर्तमान क्षणमें अतीतके संस्कार और भविष्यकी योग्यताका होना ही ध्रौव्यत्वकी व्याख्या है। अतीतका सद्भाव तो कोई भी नहीं मान सकता और न भविष्यतका ही / द्रव्यको त्रैकालिक भी इसी अर्थमें कहा जाता है कि वह अतीतसे प्रवहमान होता हुआ वर्तमान तक आया है और आगेकी मंजिलकी तैयारी कर रहा है / अर्चट कहते हैं कि जिस रूपसे उत्पाद और व्यय हैं उस रूपसे ध्रौव्य नहीं; सो ठीक है, किन्तु 'वे दोनों रूप एक धर्मीमें नहीं रह सकते' यह कसे ? जब सभी प्रमाण उस अनन्तधर्मात्मक वस्तुकी साक्षी दे रहे हैं तब उसका अंगली हिलाकर निषेध कैसे किया जा सकता है ? "यस्मिन्नेव तु सन्ताने आहिता कर्मवासना। फलं तत्रैव सन्धत्ते कार्पासे रक्तता यथा // " यह कर्म और कर्मफलको एक अधिकरणमें सिद्ध करनेवाला प्रमाण स्पष्ट कह रहा है कि जिस सन्तानमें कर्मवासना-यानी कर्मके संस्कार पड़ते हैं, उसीमें फलका अनुसन्धान होता है। जैसे कि जिस कपासके बीजमें लाक्षारसका सिंचन किया गया है उसीसे उत्पन्न होनेवाली कपास लाल रंगकी होती है। यह सब क्या है ? सन्तान एक सन्तन्यमान तत्त्व है जो पूर्व और उत्तरको जोड़ता है और वे पूर्व तथा उत्तर परिवर्तित होते हैं। इसीको तो जैन ध्रौव्य शब्दसे कहते हैं, जिसके कारण द्रव्य अनादि-अनन्त परिवर्तमान रहता है। द्रव्य एक आनंडित अखंड मौलिक है। उसका अपने धर्मोंसे कथञ्चित् भेदाभेद या कथञ्चित्तादात्म्य है / अभेद इसलिये कि द्रव्यसे उन धर्मोको पृथक् नहीं किया जा सकता, उनका विवेचन-पृथक्करण अशक्य है। भेद इसलिये कि द्रव्य और पर्यायोंमें संज्ञा, संख्या, स्वलक्षण और प्रयोजन आदिकी विविधता पाई जाती है / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy