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________________ स्याद्वाद 409 एक मिट्टीकी गोली भिन्न-भिन्न गोलियोंके ढेर में पड़कर अनेक संख्यावाली हो जाती है उसी तरह धर्म अतीतादि व्यवहारको प्राप्त हो जाता है, द्रव्य तो एक रहता है। बुद्धदेव अन्यथान्यथिक थे। धर्म पूर्व-परकी अपेक्षा अन्य-अन्य कहा जाता है / जैसे एक ही स्त्री माता भी है और पुत्री भी। जिसका पूर्व ही है, अपर नहीं, वह अनागत कहलाता है। जिसका पूर्व भी है और अपर भी, वह वर्तमान; और जिसका अपर ही है, पूर्व नहीं; वह अतीत कहलाता है। ये चारों अस्तिवादी कहे जाते थे। इनके मतोंका विस्तृत विवरण नहीं मिलता कि ये धर्म और अवस्थासे द्रव्यका तादात्म्य मानते थे, या अन्य कोई सम्बन्ध, फिर भी इतना तो पता चलता है कि ये वादी यह अनुभव करते थे कि सर्वथा क्षणिकवादमें लोक-परलोक, कर्म-फलव्यवस्था आदि नहीं बन सकते, अतः किसी रूपमें ध्रौव्य या द्रव्यके स्वीकार किये बिना चारा नहीं है। शान्तरक्षित स्वयं परलोकपरीक्षा में चार्वाकका खंडन करते समय ज्ञानादिसन्ततिको अनादि-अनन्त स्वीकार करके ही परलोककी व्याख्या करते हैं / यह ज्ञानादि-सन्ततिका अनाद्यनन्त होना ही तो द्रव्यता या ध्रौव्य है, जो अतीतके संस्कारोंको लेता हुआ भविष्यतका कारण बनता जाता है। कर्म-फलसम्बन्धपरीक्षा (पृ० 184 ) में किन्हीं चित्तोंमें विशिष्ट कार्यकारणभाव मानकर ही स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदिके घटानेका जो प्रयास किया गया है वह संस्काराधायक चित्तक्षणोंकी सन्ततिमें ही संभव हो सकता है' यह बात स्वयं शान्तरक्षित भी स्वीकार करते हैं। वे बन्ध और मोक्षकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि कार्यकारणपरम्परासे चले आये अविद्या, संस्कार आदि बन्ध हैं और इनके नाश हो जाने मलोंसे सास्रव हो रहा था उसीका निर्मल हो जाना, चित्तकी अनुस्यूतता और अनाद्यनन्तताका स्पष्ट निरूपण है, जो वस्तुको एक ही समयमें उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक सिद्ध कर देता है / तत्त्वसंग्रहपंजिका ( पृ० 184 ) में उद्धृत एक प्राचीन श्लोकमें तो "तदेव तैर्विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते” यह कहकर 'तदेव' 1. 'उपादानतदादेयभूतज्ञानादिसन्ततेः / काचिन्नियतमर्यादावस्थैव परिकीर्त्यते // तस्याश्चानाद्यनन्तायाः परः पूर्व इहेति च' -तत्त्वसं० श्लो० 1872-73 / 2. "कार्यकारणभूताश्च तत्राविद्यादयो मताः / बन्धस्तद्विगमादिष्टो युक्तिनिर्मलता धियः // " -तत्त्वसं० श्लो० 544 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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