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________________ स्याद्वाद 401 आदि रूप नहीं है / ' ऐसी हालतमें दही खानेको कहा गया पुरुष ऊँटको खानेके लिये क्यों दौड़ेगा ? जब ऊँटका नास्तित्व दहीमें है, तब उसमें प्रवृत्ति करनेका प्रसंग किसी अनुन्मत्तको कैसे हो सकता है ? दूसरे श्लोकमें जिस विशेषताका निर्देश करके समाधान किया गया है, वह विशेषता तो प्रत्येक पदार्थमें स्वभावभूत मानी ही जाती है। अतः स्वास्तित्व और परनास्तित्वकी इतनी स्पष्ट घोषणा होनेपर भी स्वभिन्न परपदार्थमें प्रवृत्तिकी बात कहना ही वस्तुतः अह्रीकता है। उभयात्मक अर्थात् द्रव्यपर्यायात्मक मानकर द्रव्य यानी पुद्गलद्र व्यकी दृष्टिसे दही और ऊँटके शरीरको एक मानकर दही खानेके बदले ऊँटके खानेका दूषण देना भी उचित नहीं है; क्योंकि प्रत्येक परमाणु, स्वतन्त्र पुद्गलद्रव्य है, अनेक परमाणु मिलकर स्कन्धरूपमें दही कहलाते हैं और उनसे भिन्न अनेक परमाणु स्कन्धका शरीर बने हैं / अनेक भिन्नासत्ताक परमाणुद्रव्योंमें पुद्गलरूपसे जो एकता है वह सादृश्यमूलक एकता है, वास्तविक एकता नहीं है / वे एकजातीय हैं, एकसत्ताक नहीं। ऐसी दशामें दही और ऊँटके शरीरमें एकताका प्रसंग लाकर मखौल उड़ाना शोभन बात तो नहीं है। जिन परमाणुओंसे दही स्कन्ध बना है उनमें भी विचारकर देखा जाय, तो सादृश्यमूलक ही एकत्वारोप हो रहा है, वस्तुतः एकत्व तो एक द्रव्यमें ही है। ऐसी स्थितिमें दही और ऊँटमें एकत्वका भान किस स्वस्थ पुरुषको हो सकता हैं ? ___ यदि कहा जाय कि "जिन परमाणुओंसे दही बना है वे परमाणु कभी-न-कभी ऊँटके शरीरमें भी रहे होंगे और ऊँटके शरीरके परमाणु दही भी बने होंगे, और आगे भी दहीके परमाणु ऊँटके शरीररूप हो सकनेकी योग्यता रखते हैं, इस दृष्टिसे दही और ऊँटका शरीर अभिन्न हो सकता है ?" सो भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि द्रव्यकी अतीत और अनागत पर्यायें जुदा होती हैं, व्यवहार तो वर्तमान पर्यायके अनुसार चलता है / खाने के उपयोगमें दही पर्याय आती है और सवारीके उपयोगमें ऊँट पर्याय / फिर शब्दका वाच्य भी जुदा-जुदा है। दही शब्दका प्रयोग दही पर्यायवाले द्रव्योंको विषय करता है न कि ऊँटकी पर्यायवाले द्रव्यको / प्रतिनियत शब्द प्रतिनियत पर्यायवाले द्रव्यका कथन करते हैं। यदि अतीत पर्यायकी संभावनासे दही और ऊँटमें एकत्व लाया जाता है तो सुगत अपने पूर्वजातकमें मृग हुए थे और वही मृग मरकर सुगत हुआ है, अतः सन्तानकी दृष्टिसे एकत्व होनेपर भी जैसे सुगत पूज्य ही होते हैं और मृग खाद्य माना जाता है, उसी तरह दही और ऊँटमें खाद्य-अखाद्यकी व्यवस्था है। आप मृग और सुगतमें खाद्यत्व और वन्द्यत्वका विपर्यास नहीं करते; क्योंकि दोनों अवस्थाएँ जुदा है, और वन्द्यत्व 26 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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