________________ 402 जैनदर्शन तथा खाद्यत्वका सम्बन्ध अवस्थाओंसे है, उसी तरह प्रत्येक पदार्थको स्थिति द्रव्यपर्यायात्मक है। पर्यायोंकी क्षणपरम्परा अनादिसे अनन्त काल तक चली जाती है, कभी विच्छिन्न नहीं होती, यही उसकी द्रव्यता ध्रौव्य या नित्यत्व है / नित्यत्व या शाश्वतपनेसे बिचकनेकी आवश्यकता नहीं है / सन्तति या परम्पराके अविच्छेदकी दृष्टिसे आंशिक नित्यता तो वस्तुका निज रूप है। उससे इनकार नहीं किया जा सकता। आप जो यह कहते हैं कि 'विशेषताका निराकरण हो जानेसे सब सर्वात्मक हो जायँगें', सो द्रव्योंमें एकजातीयता होनेपर स्वरूपकी भिन्नता और विशेषता है ही। पयायोंमें परस्पर भेद ही है, अतः दही और ऊँटके अभेदका प्रसंग देना वस्तुका जानते-बूझते विपर्यास करना है / विशेषता तो प्रत्येक द्रव्यमें है और एक द्रव्यको दो पर्यायोंमें भी मौजूद है ही, उससे इनकार नहीं किया जा सकता। प्रज्ञाकरगुप्त और अर्चट, तथा स्याद्वाद : प्रज्ञाकरगुप्त धर्मकीर्तिके शिष्य हैं। वे प्रमाणवातिकालंकारमें जैनदर्शनके उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक परिणामवादमें दूषण देते हुए लिखते हैं कि "जिस समय व्यय होगा, उस समय सत्त्व कैसे ? यदि सत्त्व है; तो व्यय कैसे ? अतः नित्यानित्यात्मक वस्तुकी सम्भावना नहीं है। या तो वह एकान्तसे नित्य हो सकती है या एकान्तसे अनित्य / " हेतुबिन्दुके टीकाकार अर्चट भी वस्तुके उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक लक्षणमें ही विरोध दूषणका उद्भावन करते हैं। वे कहते हैं कि "जिस रूपसे उत्पाद और व्यय हैं उस रूपसे ध्रौव्य नहीं है, और जिस रूपसे ध्रौव्य है उस रूपसे उत्पाद और व्यय नहीं हैं / एक धर्मीमें परस्पर विरोधी दो धर्म नहीं हो सकते।" 1. "अथोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं यत्तत्सदिष्यते / एषामेव न सत्त्वं स्यात् एतद्भावावियोगतः // यदा व्ययस्तदा सत्त्वं कथं तस्य प्रतीयते ? पूर्व प्रतीते सत्त्वं स्यात् तदा तस्य व्ययः कथम् // ध्रौव्येऽपि यदि नास्मिन् धीः कथं सत्त्वं प्रतीयते / प्रतीवेरेव सर्वस्य तस्मात् सत्त्वं कुतोऽन्यथा // तस्मान्न नित्यानित्यस्य वस्तुनः संभवः कचित् / अनित्यं नित्यमथवास्तु एकान्तेन युक्तिमत् // " -प्रमाणवार्तिकाल०, पृ० 142 / 2. "धौव्येण उत्पादव्यययोविरोधात् , एकस्मिन् धर्मिण्ययोगात् / " -हेतुबि० टी० पृ० 146 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org