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________________ - जैनदर्शन करनेके परिणाम हैं। वस्तु तो अपने स्थानपर अपने विराट रूपमें प्रतिष्ठित है, उसमें अनन्तधर्म, जो हमें परस्पर विरोधी मालूम होते हैं, अविरुद्ध भावसे विद्यमान हैं / पर हमारी दृष्टिमें विरोध होनेसे हम उसकी यथार्थ स्थितिको नहीं समझ पा रहे हैं। धर्मकीति और अनेकान्तवाद : आचार्य धर्मकीर्ति प्रमाणवार्तिक' ( 3 / 180-184 ) में उभयरूप तत्त्वके स्वरूपमें विपर्यास कर बड़े रोषसे अनेकान्ततत्त्वको प्रलापमात्र कहते हैं / वे सांख्यमतका खंडन करनेके बाद जैनमतके खंडनका उपक्रम करते हुए लिखते हैं "एतेनैव यदह्रीकाः किमप्ययुक्तमाकुलम् / प्रलपन्ति प्रतिक्षिप्तं तदप्येकान्तसम्भवात् ।।"-प्र० वा० 3 / 180 / अर्थात् सांख्यमतके खंडन करनेसे ही अह्रीक यानी दिगम्बर लोग जो कुछ अयुक्त और आकुल प्रलाप करते हैं वह खंडित हो जाता है; क्योंकि तत्त्व एकान्तरूप ही हो सकता है। यदि सभी तत्त्वोंको उभयरूप यानी स्व-पररूप माना जाता है, तो पदार्थोंमें विशेषताका निराकरण हो जानेसे 'दही खाओ' इस प्रकारको आज्ञा दिया पुरुष ऊँटको खानेके लिये क्यों नहीं दौड़ता ? क्योंकि दही 'स्व-दहीकी तरह पर-ऊँटरूप भी है। यदि दही और ऊँटमें कोई विशेषता या अतिशय है, जिसके कारण दही शब्दसे दहीमें तथा ऊँट शब्दसे ऊँटमें ही प्रवृत्ति होती है, तो वही विशेषता सर्वत्र मान लेनी चाहिये, ऐसी दशामें तत्त्व उभयात्मक नहीं रहकर अनुभयात्मक यानी प्रतिनियत स्वरूपवाला सिद्ध होगा। इस प्रसङ्गमें आ० धर्मकीर्तिने जैनतत्त्वके विपर्यास करनेमें हद कर दी है / तत्त्वको उभयात्मक अर्थात् सत्-असदात्मक, नित्यानित्यात्मक या भेदाभेदात्मक कहनेका तात्पर्य यह है कि दही, दही रूपसे सत् है और दहीसे भिन्न उष्ट्रादिरूपसे वह 'नास्ति' है। जब जैन तत्त्वज्ञान यह स्पष्ट कह रहा है कि 'हर वस्तु स्वरूपसे है, पररूपसे नहीं हैं; तब उससे तो यही फलित हो रहा है कि 'दही दही है, ऊँट 1. 'सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः / चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रं नाभिधावति // अथास्त्यतिशयः कश्चित् तेन भेदेन वर्तते। स एव विशेषोऽन्यत्र नास्तोत्यनुभयं वरम् // ' ---प्रमाणवा० 3.181-182 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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