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________________ स्याद्वाद 399 अनन्तानन्त द्रव्य लोकमें वस्तुसत् हैं। पूर्णसत्य तो वस्तुके यथार्थ अनेकान्तस्वरूपका दर्शन ही है, न कि काल्पनिक अभेदका खयाल / बुद्धिगत अभेद हमारे आनन्दका विषय हो सकता है, पर इससे दो द्रव्योंकी एक सत्ता स्थापित नहीं हो सकती। __कुछ इसी प्रकारके विचार प्रो० बलदेवजी उपाध्याय भी राधाकृष्णन्का अनुसरण कर 'भारतीय दर्शन' (पृ० 173 ) में प्रकट करते हैं- "इसी कारण यह व्यवहार तथा परमार्थके बीचोंबीच तत्त्वविचारको कतिपय क्षणके लिये विस्रम्भ तथा विराम देनेवाले विश्रामगृहसे बढ़कर अधिक महत्त्व नहीं रखता।" आप चाहते हैं कि प्रत्येक दर्शनको उस काल्पनिक अभेद तक पहुँचना चाहिये / पर स्याद्वाद जब वस्तुका विचार कर रहा है, तब वह परमार्थसत् वस्तुकी सीमाको कैसे लाँघ सकता है ? ब्रह्म कवाद न केवल युक्ति-विरुद्ध ही है, किन्तु आजके विज्ञानसे उसके एकीकरणका कोई वास्तविक मूल्य सिद्ध नहीं होता। विज्ञानने एटमका भी विश्लेषण किया है और प्रत्येक परमाणुकी अपनी मौलिक और स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की है। अतः यदि स्याद्वाद वस्तुको अनेकान्तात्मक सीमापर पहुँचाकर बुद्धिको विराम देता है, तो यह उसका भूषण ही है। दिमागी अभेदसे वास्तविक स्थितिकी उपेक्षा करना मनोरंजनसे अधिक महत्त्वकी बात नहीं है सकती। डॉ. देवराजजीने 'पूर्वी और पश्चिमी दर्शन' (पृ० 65) में 'स्यात्' शब्दका 'कदाचित्' अनुवाद किया है / यह भी भ्रमपूर्ण है / कदाचित् शब्द कालापेक्ष है / इसका सीधा अर्थ है-किसी समय / और प्रचलित अर्थमें कदाचित् शब्द एक तरहसे संशयकी ओर ही झुकता है। वस्तुमें अस्तित्व और नास्तित्व धर्म एक हो कालमें रहते हैं, न कि भिन्नकालमें / कदाचित् अस्ति और कदाचित् नास्ति नहीं हैं, किन्तु सह-एक साथ अस्ति और नास्ति हैं / स्यात्का सही और सटीक अर्थ है-'कथञ्चित्' अर्थात् एक निश्चित प्रकारसे / यानी अमुक निश्चित दृष्टिकोणसे वस्तु 'अस्ति' है और उसी समय द्वितीय निश्चित दृष्टिकोणसे 'नास्ति' है, इसमें कालभेद नहीं है। अपेक्षाप्रयुक्त निश्चयवाद ही स्याद्वादका अभ्रान्त वाच्यार्थ हो सकता है। श्री हनुमन्तराव एम० ए० ने अपने 'Jain Instrumental Theory of Knowledge" नामक लेख में लिखा है कि "स्याद्वाद सरल समझौतेका मार्ग उपस्थित करता है, वह पूर्ण सत्यतक नहीं ले जाता" आदि। ये सब एक ही प्रकारके विचार हैं जो स्याद्वादके स्वरूपको न समझने या वस्तुस्थितिकी उपेक्षा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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