________________ 398 जैनदर्शन लगा हुआ है वह निर्दिष्टधर्मके अवधारणको बताता है। इस प्रकार जब स्याद्वाद सुनिश्चित दृष्टिकोणोंसे उन-उन धर्मोका खरा निश्चय करा रहा है, तब इसे संभावनावादमें नहीं रखा जा सकता। यह स्याद्वाद व्यवहार, निर्वाहके लक्ष्यसे कल्पित धर्मों में भी भले ही लग जाय, पर वस्तुव्यवस्थाके समय वह वस्तुकी सीमाको नहीं लांघता। अतः न यह संशयवाद है, न अनिश्चयवाद ही, किन्तु खरा अपेक्षाप्रयुक्त निश्चयवाद है। सर राधाकृष्णन्के मतको मीमांसा : ___ डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन्ने इण्डियन फिलासफी ( जिल्द 1 पृ० 305-6 ) में स्याद्वादके ऊपर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है कि "इससे हमें केवल आपेक्षिक अथवा अर्धसत्यका ही ज्ञान हो सकता है / स्याद्वादसे हम पूर्ण सत्यको नहीं जान सकते / दूसरे शब्दोंमें स्याद्वाद हमें अर्धसत्योंके पास लाकर पटक देता है, और इन्हीं अर्धसत्योंको पूर्णसत्य मान लेनेकी प्रेरणा करता है। परन्तु केवल निश्चित अनिश्चित अर्धसत्योंको मिलाकर एक साथ रख देनेसे वह पूर्णसत्य नहीं कहा जा सकता!" आदि / क्या सर राधाकृष्णन् यह बतानेकी कृपा करेंगे कि स्याद्वादने निश्चित-अनिश्चित अर्धसत्योंको पूर्ण सत्य मान लेनेकी प्रेरणा कैसे की है ? हाँ, वह वेदान्तकी तरह चेतन और अचेतनके काल्पनिक अभेदकी दिमागी दौड़में अवश्य शामिल नहीं हुआ और न वह किसी ऐसे सिद्धान्तके समन्वय करनेकी सलाह देता है, जिसमें वस्तुस्थितिकी उपेक्षा की गई हो। सर राधाकृष्णनको पूर्ण सत्यके रूपमें वह काल्पनिक अभेद या ब्रह्म इट है, जिसमें चेतन, अचेतन, मूर्त, अमूर्त सभी काल्पनिक रीतिसे समा जाते हैं। वे स्याद्वादकी समन्वय दृष्टिको अर्धसत्योंके पास लाकर पटकना समझते हैं, पर जब प्रत्येक वस्तु स्वरूपतः अनन्तधर्मात्मक है, तब उस वास्तविक नतीजेपर पहुँचनेको अर्धसत्य कैसे कह सकते हैं ? हाँ, स्याद्वाद उस प्रमाणविरुद्ध काल्पनिक अभेदकी ओर वस्तुस्थितिमूलक दृष्टिसे नहीं जा सकता। वैसे परमसंग्रहनयकी दृष्टिसे एक चरम अभेदकी कल्पना जैनदर्शनकारोंने भी की है, जिसमें सद्रूपसे सभी चेतन और अचेतन समा जाते हैं"सर्वमेकं सदविशेषात्"-सब एक हैं, सत् रूपसे चेतन अचेतनमें कोई भेद नहीं है। पर यह एक कल्पना ही है, क्योंकि ऐसा कोई एक 'वस्तुसत्' नहीं है जो प्रत्येक मौलिक द्रव्यमें अनुगत रहता हो / अतः यदि सर राधाकृष्णन्को चरम अभेदकी कल्पना ही देखनी हो, तो वह परमसंग्रहनयमें देखी जा सकती है / पर वह सादृश्यमूलक अभेदोपचार ही होगा, वस्तुस्थिति नहीं। या प्रत्येक द्रव्य अपनी गुण और पर्यायोंसे वास्तविक अभेद रखता है, पर ऐसे स्वनिष्ठ एकत्ववाले Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org