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________________ स्याद्वाद 397 लिये सद्रूपसे 'एक' भले ही कहे जायँ, पर वह काल्पनिक एकत्व मौलिक वस्तुकी संज्ञा नहीं पा सकता / यह कैसे संभव है कि चेतन और अचेतन दोनों ही एक सत्के प्रातिभासिक विवर्त हों। जिस काल्पनिक समन्वयकी ओर उपाध्यायजीने संकेत किया है; उस ओर जैन दार्शनिकोंने प्रारंभसे ही दृष्टिपात किया है। परमसंग्रहनयकी दृष्टिमें सद्रूपसे यावत् चेतन-अचेतन द्रव्योंका संग्रह करके 'एकसत्' इस शब्दव्यवहारके करनेमें जैन दार्शनिकोंको कोई आपत्ति नहीं है। पर यह एकत्व वस्तुसिद्ध भेदका अपलाप नहीं कर सकता। सैकड़ों आरोपित और काल्पनिक व्यवहार होते हैं, पर उनसे मौलिक तत्त्व-व्यवस्था नहीं की जा सकती। 'एक देश या एक राष्ट्र' अपने में क्या वस्तु है ? भूखण्डोंका अपना-अपना जुदा अस्तित्व होनेपर भी बुद्धिगत सीमाकी अपेक्षा राष्ट्रोंकी सीमाएँ बनती बिगड़ती रहती हैं / उसमें व्यवहारको सुविधाके लिये प्रान्त, जिला आदि संज्ञाएँ जैसे काल्पनिक हैमात्र व्यवहारसत्य हैं, उसी तरह एक सत् या एक ब्रह्म काल्पनिक सत् होकर मात्र व्यवहारसत्य ही बन सकता है और कल्पनाकी दौड़का चरमबिन्दु भी हो सकता है, पर उसका तत्त्वसत् या परमार्थसत् होना नितान्त असंभव है; आज विज्ञान एटम तकका विश्लेषण कर चुका है / अतः इतना बड़ा अभेद, जिसमें चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त आदि सभी लीन हो जॉय, कल्पनासाम्राज्यकी चरम कोटि है। और इस कल्पनाकोटिको परमार्थसत् न माननेके कारण जैनदर्शनका स्याद्वाद-सिद्धान्त यदि आपको मूलभूत तत्त्वके स्वरूप समझने में नितान्त असमर्थ प्रतीत होता है, तो हो, पर वह वस्तुकी सीमाका उल्लंघन नहीं कर सकता और न कल्पनालोककी लम्बी दौड़ ही लगा सकता है। 'स्यात्' शब्दको उपाध्यायजी संशयका पर्यायवाची नहीं मानते, यह तो प्रायः निश्चित है; क्योंकि आप स्वयं लिखते हैं ( पृ० 173 ) कि “यह अनेकान्तवाद संशयवादका रूपान्तर नहीं है"। पर आप उसे संभववाद अवश्य कहना चाहते हैं। परन्तु 'स्यात्'का अर्थ 'संभवतः' करना भी न्यायसंगत नहीं है; क्योंकि संभावना, संशयगत उभयकोटियों से किसी एककी अर्धनिश्चितताकी ओर संकेतमात्र है, निश्चय उससे बिलकुल भिन्न होता है, स्याद्वादको संशय और निश्चयके मध्य में संभावनावादकी जगह रखनेका अर्थ है कि वह एक प्रकारका अनध्यवसाय ही है / परन्तु जब स्याद्वादका प्रत्येक भंग स्पष्ट रूपसे अपनी सापेक्ष सत्यताका अवधारण करा रहा है कि 'घड़ा स्वचतुष्टयकी दृष्टिसे 'है ही', इस दृष्टिसे 'नहीं' कभी भी नहीं हैं / परचतुष्टयकी दृष्टिसे 'नहीं ही है', 'है' कभी भी नहीं; तब संशय और संभावनाकी कल्पना ही नहीं की जा सकती। 'घटः स्यादस्त्येव' इसमें जो एवकार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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