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________________ 396 जैनदर्शन प्रो० बलदेवजी उपाध्यायके मतको आलोचना : प्रो० बलदेवजी उपाध्यायने अपने भारतीयदर्शन ( पृ० 155 ) में स्याद्वादका अर्थ बताते हुए लिखा है कि "स्यात् ( शायद, सम्भवतः ) शब्द अस् धातुके विधिलिके रूपका तिङन्त प्रतिरूपक अव्यय माना जाता है। घड़ेके विषयमें हमारा मत स्यादस्ति–सम्भवतः यह विद्यमान है' इसी रूपमें होना चाहिए।" इसलिये वे शायद शब्दको कोष्ठकमें लिखकर भी आगे 'सम्भवतः' अर्थका समर्थन करते हैं / वैदिक आचार्य स्वामी शंकराचार्यने जो स्याद्वादकी गलत बयानी की है उसका संस्कार आज भी कुछ विद्वानोंके मस्तिष्कपर पड़ा हुआ है और वे उसी संस्कारवश 'स्यात्' का अर्थ 'शायद' करनेमें नहीं चूकते। जब यह स्पष्ट रूपसे अवधारण करके निश्चयात्मक रूपसे कहा जाता है कि 'घड़ा अपने स्वरूपसे 'स्यादस्ति'-है ही, घड़ा स्वभिन्न पररूपसे 'स्यान्नास्ति'-नहीं ही है', तब शायद या संशयको गुञ्जाइश कहाँ है ? 'स्यात्' शब्द तो श्रोताको यह सूचना देता है कि जिस 'अस्ति' धर्मका प्रतिपादन हो रहा है वह धर्म सापेक्ष स्थितिवाला है, अमुक स्वचतुष्टयकी अपेक्षासे उसका सद्भाव है / 'स्यात्' शब्द यह बताता है कि वस्तुमें अस्तिसे भिन्न अन्य धर्म भी सत्ता रखते हैं। जब कि संशय और शायदमें एक भी धर्म निश्चित नहीं होता। अनेकान्त-सिद्धान्तमें अनेक ही धर्म निश्चित हैं और उनके दृष्टिकोण भी निर्धारित हैं। आश्चर्य है कि अपनेको तटस्थ माननेवाले विद्वान् आज भी उसी संशय और शायदकी परम्पराको चलाये जाते हैं ! रूढिवादका माहात्म्य अगम्य है ! ___ इसी संस्कारवश उपाध्यायजी 'स्यात्' के पर्यायवाचियोंमें 'शायद' शब्दको लिखकर ( पृ० 173 ) जैनदर्शनकी समीक्षा करते समय शंकराचार्यकी वकालत इन शब्दोंमें करते हैं-"यह निश्चित ही है कि इसी समन्वय दृष्टिसे वह पदार्थोंके विभिन्न रूपोंका समीकरण करता जाता तो समग्र विश्वमें अनुस्यूत परम तत्त्व तक अवश्य पहुँच जाता। इसी दृष्टिको ध्यानमें रखकर शंकराचार्यने इस स्याद्वादका मार्मिक खण्डन अपने शारीरक भाष्य ( 2 / 2 / 33 ) में प्रबल युक्तियोंके सहारे किया है" पर, उपाध्यायजी, जब आप ‘स्यात्' का अर्थ निश्चितरूपसे 'संशय' नहीं मानते, तब शंकराचार्यके खण्डनका मार्मिकत्व क्या रह जाता है ? ___ जैनदर्शन स्याद्वाद-सिद्धान्तके अनुसार वस्तुस्थितिके आधारसे समन्वय करता है / जो धर्म वस्तुमें विद्यमान हैं उन्हींका तो समन्वय हो सकता है। जैनदर्शनको आपने वास्तव-बहुत्ववादी लिखा है। अनेक स्वतन्त्र चेतन, अचेतन सत्-व्यवहारके For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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