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________________ स्याद्वाद 393 संशयज्ञान एक होकर भी 'संशय और निश्चय' इन दो आकारोंको धारण करता है। 'संशय परस्पर विरोधी दो आकारोंवाला है' यह बात तो सुनिश्चित है, इसमें तो कोई सन्देह नहीं है / एक ही नरसिंह एक भागसे नर होकर भी द्वितीय भागकी अपेक्षा सिंह है / एक ही धूपदहनी अग्निसे संयुक्त भागमें उष्ण होकर भी पकड़नेवाले भागमें ठंडी है / हमारा समस्त जीवन-व्यवहार ही सापेक्ष धर्मोसे चलता है / कोई पिता अपने बेटेसे 'बेटा' कहे और वह बेटा, जो अपने लड़केका बाप है, अपने पितासे इसलिये झगड़ पड़े कि 'वह उसे बेटा क्यों कहता है ?' तो हम उस बेटेको ही पागल कहेंगे, बापको नहीं। अतः जब ये परस्परविरोधी अनन्तधर्म वस्तुके विराटरूपमें समाये हुए हैं, उसके अस्तित्वके आधार हैं, तब विरोध कैसा ? सात तत्त्वका जो स्वरूप है, उस स्वरूपसे ही तो उनका अस्तित्व है, भिन्न स्वरूपसे उनका नास्तित्व ही है। यदि जिस रूपसे अस्तित्व कहा जाता है उसी रूपसे नास्तित्व कहा जाता, तो विरोध या असंगति होती / स्त्री जिसकी पत्नी है, यदि उसीकी माता कही जाय, तो ही लड़ाई हो सकती है। ब्रह्मका जो स्वरूप नित्य, एक और व्यापक बताया जाता है उसी रूपसे तो ब्रह्मका अस्तित्व माना जा सकता है, अनित्य, अव्यापक और अनेकके रूपसे तो नहीं। हम पूछते हैं कि जिस प्रकार ब्रह्म नित्यादिरूपसे अस्ति है, क्या उसी तरह अनित्यादिरूपसे भी उसका अस्तित्व है क्या ? यदि हाँ, तो आप स्वयं देखिये, ब्रह्मका स्वरूप किसी अनुन्मत्त के समझने लायक रह जाता है क्या ? यदि नहीं; तो ब्रह्म जिस प्रकार नित्यादिरूपसे 'सत्' और अनित्यादिरूपसे 'असत्' है, और इस तरह अनेकधर्मात्मक सिद्ध होता है उसी तरह जगत्के समस्त पदार्थ इस त्रिकालाबाधित स्वरूपसे व्याप्त हैं। प्रमाता और प्रमिति आदिके जो स्वरूप हैं, उनकी दृष्टिसे ही तो उनका अस्तित्व होगा, अन्य स्वरूपोंसे कैसे हो सकता है ? अन्यथा स्वरूपसांकर्य होनेसे जगत्की व्यवस्थाका लोप ही प्राप्त होता है / 'पंचास्तिकायकी पांच संख्या है, चार या तीन नहीं', इसमें क्या विरोध है ? यदि कहा जाता कि 'पंचास्तिकाय पाँच हैं और पाँच नहीं हैं' तो विरोध होता, पर अपेक्षाभेदसे तो पंचास्तिकाय पाँच हैं, चार आदि नहीं हैं। फिर पाँचों अस्तिकाय अस्तिकायत्वेन एक होकर भी तत्तद्व्यक्तियोंकी दृष्टिसे पाँच भी हैं। सामान्यसे एक भी हैं और विशेष रूपसे पाँच भी हैं, इसमें क्या विरोध है ? स्वर्ग और मोक्ष अपने स्वरूपकी दृष्टिसे 'हैं', नरकादिकी दृष्टिसे 'नहीं'; इसमें क्या आपत्ति है ? 'स्वर्ग स्वर्ग है, नरक तो नहीं है', यह तो आप भी मानेंगे / 'मोक्ष मोक्ष ही तो होगा, संसार तो नहीं होगा।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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