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________________ 392 जैनदर्शन शङ्कराचार्य और स्याद्वाद : ____ बादरायणने ब्रह्मसूत्रमें सामान्यरूपसे 'अनेकान्त' तत्त्वमें दूषण दिया है कि एक वस्तुमें अनेकधर्म नहीं हो सकते / श्रीशङ्कराचार्यजी अपने भाष्यमें इसे विवसनसमय ( दिगम्बर सिद्धान्त ) लिखकर इसके सप्तभंगी नयमें सूत्रनिर्दिष्ट विरोधके सिवाय संशय दोष भी देते हैं। वे लिखते हैं कि "एक वस्तुमें परस्परविरोधी अनेक धर्म नहीं हो सकते, जैसे कि एक ही वस्तु शीत और उष्ण नहीं हो सकती। जो सात पदार्थ या पंचास्तिकाय बताये हैं, उनका वर्णन जिस रूपमें है, वे उस रूपमें भी होंगे और अन्य रूपमें भी। यानी एक भी रूपसे उनका निश्चय नहीं होनेसे संशयदूषण आता है / प्रमाता, प्रमिति आदिके स्वरूपमें भी इसी तरह निश्चयात्मकता न होनेसे तीर्थंकर किसे उपदेश देंगे और श्रोता कैसे प्रवृत्ति करेंगे? पाँच अस्तिकायोंकी ‘पाँच संख्या' है भी और नहीं भी, यह तो बड़ी विचित्र बात है। 'एक तरफ अवक्तव्य भी कहते हैं, फिर उसे अवक्तव्य शब्दसे कहते भी जाते हैं।' यह तो स्पष्ट विरोध है कि-'स्वर्ग और मोक्ष है भी और नहीं भी, नित्य भी है और अनित्य भी।' तात्पर्य यह कि एक वस्तुमें परस्पर विरोधी दो धर्मोंका होना सम्भव ही नहीं है / अतः आर्हतमतका ‘स्याद्वाद' सिद्धान्त असंगत है।' हम पहले लिख आये हैं कि 'स्यात्' शब्द जिस धर्मके साथ लगता है उसकी स्थिति कमजोर नहीं करके वस्तुमें रहनेवाले तत्प्रतिपक्षी धर्मकी सूचना देता है। वस्तु अनेकान्तरूप है, यह समझनेकी बात नहीं है। उसमें साधारण, असाधारण और साधारणासाधारण आदि अनेक धर्म पाये जाते हैं। एक ही पदार्थ अपेक्षाभेदसे परस्परविरोधी अनेक धर्मोंका आधार होता है। एक ही देवदत्त अपेक्षाभेदसे पिता भी है, पुत्र भी है, गुरु भी है, शिष्य भी है, शासक भी है, शास्य भी है, ज्येष्ठ भी है, कनिष्ठ भी है, दूर भी है, और पास भी है। इस तरह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि विभिन्न अपेक्षाओंसे उसमें अनन्त धर्म सम्भव हैं / केवल यह कह देनेसे कि 'जो पिता है वह पुत्र कैसा ? जो गुरु है वह शिष्य कैसा ? जो ज्येष्ठ है वह कनिष्ठ कैसा ? जो दूर है वह पास कैसा, प्रतीतिसिद्ध स्वरूपका अपलाप नहीं किया जा सकता। एक ही मेचकरत्न अपने अनेक रंगोंकी अपेक्षा अनेक है। चित्रज्ञान एक होकर भी अनेक आकारवाला प्रसिद्ध ही है। एक ही स्त्री अपेक्षाभेदसे माता भी है और पत्नी भी। एक ही पृथिवीत्वसामान्य पृथिवीव्यक्तियोंमें अनुगत होनेके कारण सामान्य होकर भी जलादिसे व्यावृत्ति कराता है। अतः विशेष भी है। इसीलिये इसको सामान्यविशेष या अपरसामान्य कहते हैं। स्वयं 1. नैकस्मिन्नसंभवात् / ' -ब्रह्मसू० 2 / 2 / 33 / 2. शांकरभाष्य 2 / 2 / 33 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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