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________________ स्याद्वाद नामक धमका, जो कि 'अस्ति' आदिके साथ स्वतन्त्र भावसे द्विसंयोगी हुआ है, तोड़कर अ-वक्तव्य करके उसका संजयके 'नहीं' के साथ मेल बैठा देते हैं और 'संजयके घोर अनिश्चयवादको ही अनेकान्तवाद कह डालते हैं ! किमाश्चमर्यमतः परम् !! डॉ० सम्पूर्णानन्दका मत : ___ डॉ० सम्पूर्णानन्दजी 'जैनधर्म' पुस्तककी प्रस्तावना ( पृ० 3 ) में अनेकान्तवादको ग्राह्यता स्वीकार करके भी सप्तभंगी न्यायको बालकी खाल निकालनेके समान आवश्यकतासे अधिक बारीकीमें जाना समझते हैं। पर सप्तभंगीको आजसे अढ़ाई हजार वर्ष पहलेके वातावरणमें देखनेपर वे स्वयं उसे समयकी मांग कहे बिना नहीं रह सकते / उस समय आबाल-गोपाल प्रत्येक प्रश्नको सहज ही 'सत्, असत्, उभय और अनुभय' इस चार कोटियोंमें गूंथकर ही उपस्थित करते थे और उस समयके आचार्य उत्तर भी उस चतुष्कोटिका 'हाँ' या 'ना' में देते थे। तीर्थंकर महावीरने मूल तीन भंगोंके गणितके नियमानुसार अधिक-से-अधिक अनुपरुक्त सात भंग बनाकर कहा कि वस्तु अनेकान्तात्मक है-उसमें चार विकल्प भी बराबर सम्भव हैं / 'अवक्तव्य, सत् और असत् इन तीन मूलधर्मोके सात भंग ही हो सकते हैं / इन सब सम्भव प्रश्नोंका समाधान करना ही सप्तभंगीका प्रयोजन है / यह तो जैसे-को-तैसा उत्तर है। अर्थात् चार प्रश्न तो क्या सात प्रश्नोंकी भी कल्पना करके एक-एक धर्मविषयक सप्तभंगी बनाई जा सकती है और ऐसे अनन्त सप्तभंग वस्तुके विराट् स्वरूपमें संभव हैं / यह सब निरूपण वस्तुस्थितिके आधारसे किया जाता है, केवल कल्पनासे नहीं। जैनदर्शनने दर्शनशब्दकी काल्पनिक भूमिसे ऊपर उठकर वस्तुसीमापर खड़े होकर जगत्में वस्तुस्थितिके आधारसे संवाद, समीकरण और यथार्थ तत्त्वज्ञानको अनेकान्त-दृष्टि और स्याद्वाद-भाषा दी। जिनकी उपासनासे विश्व अपने वास्तविक स्वरूपको समझ निरर्थक वादविवादसे बचकर संवादी बन सकता है / 1. जैन कथाग्रन्थोंमें महावीरके बालजीवनकी एक घटनाका वर्णन मिलता है कि संजय और विजय नामके दो साधुओंका संशय महावीरको देखते ही नष्ट हो गया था, इसीलिए इनका नाम 'सन्मति' रखा गया था। सम्भव है, ये संजय, संजयवेलट्ठिपुत्त ही हों और इन्हींके संशय या अनिश्चयका नाश महावीरके सप्तभंगीन्यायसे हुआ हो। यहाँ 'वेलट्ठिपुत्त' विशेषण अपभ्रष्ट होकर विजय नाम का दूसरा साधु बन गया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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