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________________ जैनदर्शन लिया।' यह तो ऐसा ही है, जैसे कोई कहे कि 'भारतमें रही परतंत्रताको परतंत्रता-विधायक अंग्रेजोंके चले जाने पर भारतीयोंने उसे अपरतंत्रता (स्वतंत्रता) के रूपमें अपना लिया; क्योंकि अपरतंत्रतामें भी 'प र त न्त्र ता' ये पाँच अक्षर तो मौजूद हैं ही।' या 'हिंसाको ही बुद्ध और महावीरने उसके अनुयायियोंके लुस होने पर 'अहिंसाके रूपसे अपना लिया है; क्योंकि अहिंसामें भी 'हिं सा' ये दो अक्षर हैं ही।' जितना परतन्त्रताका अपरतन्त्रतासे और हिंसा का अहिंसासे भेद है उतना ही संजयके अनिश्चय या अज्ञानवादसे स्याद्वादका अन्तर है। ये तो तीन और छह (36) की तरह परस्पर विमुख हैं। स्याद्वाद संजयके अज्ञान और अनिश्चयका ही तो उच्छेद करता है। साथ-ही-साथ तत्त्वमें जो विपर्यय और संशय हैं उनका भी समूल नाश कर देता है। यह देखकर तो और भी आश्चर्य होता है कि आप ( पृ० 484 में ) अनिश्चिततावादियोंकी सूचीमें संजय के साथ निग्गंठनाथपुत्त ( महावीर ) का नाम भी लिख जाते हैं तथा ( पृ० 491 में ) संजयको अनेकान्तवादी भी। क्या इसे धर्मकीतिके शब्दोंमें 'धिग् व्यापकं तमः' नहीं कह सकते ? 'स्यात्' का अर्थ शायद, संभव या कदाचित् नहीं : 'स्यात्' शब्दके प्रयोगसे साधारणतया लोगोंको संशय, अनिश्चय और संभावनाका भ्रम होता है / पर यह तो भाषाकी पुरानी शैली है उस प्रसंगको, जहाँ एक वादका स्थापन नहीं किया जाता / एकाधिक भेद या विकल्पकी सूचना जहाँ करनी होती है वहाँ 'सिया' ( स्यात् ) पदका प्रयोग भाषाकी विशिष्ट शैलीका एक रूप रहा है जैसा कि मज्झिमनिकायके महाराहुलोवादसुत्तके अवतरणसे' विदित होता है। इसमें तेजोधातुके दोनों सुनिश्चित भेदोंकी सूचना 'सिया' शब्द देता है, न कि उन भेदोंका अनिश्चय, संशय या सम्भावना व्यक्त करता है / इसी तरह ‘स्यादस्ति' के साथ लगा हुआ 'स्यात्' शब्द 'अस्ति' की स्थितिको निश्चित अपेक्षासे दृढ़ तो करता ही है, साथ-ही-साथ अस्तिसे भिन्न और भी अनेक धर्म वस्तमें हैं, पर वे विवक्षित न होनेसे इस समय गौण हैं, इस सापेक्ष स्थितिको भी बताता है। राहलजीने 'दर्शनदिग्दर्शन' में सप्तभंगीके पांचवें, छठे और सातवें भंगको जिस अशोभन तरीकेसे तोड़ा-मरोड़ा है वह उनकी अपनी निरी कल्पना और साहस है। जब वे दर्शनको व्यापक, नई और वैज्ञानिक दृष्टिसे देखना चाहते हैं तो किसी भी दर्शनकी समीक्षा उसके ठीक स्वरूपको समझकर करनी चाहिये / वे 'अवक्तव्य' 1. देखो, पृ० 53 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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