________________ स्याद्वाद , 389 वस्तुस्थितिके अनुसार यथार्थ उत्तर दिया और शिष्योंकी जिज्ञासाका समाधान कर उनको बौद्धिक दीनतासे त्राण दिया / इन प्रश्नोंका स्वरूप इस प्रकार हैप्रश्न संजय . महावीर 1. क्या लोक मैं जानता -- इनका जानना हाँ, लोक द्रव्यदृष्टिसेशाश्वत होऊँ, तो अनुपयोगी है, शाश्वत है / इसके बताऊँ ? ( अव्याकरणीय, किसी भी सत्का ( अनिश्चय, अकथनीय ) सर्वथा नाश नहीं हो अज्ञान) सकता, न किसी असत्से नये सत्का उत्पाद ही संभव है। 2. क्या लोक हाँ, लोक अपने प्रतिअशाश्वत क्षणभावी परिणमनोंकी दृष्टिसे अशाश्वत है। कोई भी पर्याय दो क्षण ठहरनेवाली नहीं है। 3. क्या लोक हाँ, लोक दोनों दृष्टियोंशाश्वत से क्रमशः विचार करने और पर शाश्वत भी है और अशाश्वत है ? अशाश्वत भी है। 4. क्या लोक मैं जानता अव्याकृत हाँ, ऐसा कोई शब्द दोनोंरूप . होऊँ, तो नहीं, जो लोकके परिनहीं है; . बताऊँ पूर्ण स्वरूपको एक साथ अनुभय (अज्ञान, अनिश्चय) समग्रभावसे कह सके, अतः पूर्ण रूपसे वस्तु अनुभय है, अवक्तव्य है। संजय और बुद्ध जिन प्रश्नोंका समाधान नहीं करते, उन्हें अनिश्चय या अव्याकृत कहकर उनसे पिंड छुड़ा लेते हैं; महावीर उन्हींका वास्तविक और युक्तिसंगत' समाधान करते हैं / इस पर भी राहुलजी यह कहनेका साहस करते हैं कि 'संजयके अनुयायियोंके लुप्त हो जाने पर संजयके वादको ही जैनियोंने अपना 1. बुद्धके अव्याकृत प्रश्नोंका पूरा समाधान तथा उनके आगमिक अवतरणोंके लिये देखो, जैनतर्कवार्तिकको प्रस्तावना पृ० 14-24 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org