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________________ 388 जैनदर्शन (1) क्या लोक शाश्वत है ? हाँ, लोक शाश्वत है-द्रव्योंकी संख्याकी दृष्टिसे / इसमें जितने सत् अनादिसे हैं, उनमेंसे एक भी सत् कम नहीं हो सकता और न उसमें किसी नये 'सत्' की वृद्धि ही हो सकती है, न एक सत् दूसरेमें विलीन ही हो सकता है / कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता, जब इसके अंगभूत एक भी द्रव्यका लोप हो जाय या सब समाप्त हो जाय / निर्वाण अवस्थामें भी आत्माकी निरास्रव चित्-सन्तति अपने शुद्धरूपमें बराबर चालू रहती है, दीपकी तरह बुझ नहीं जाती, यानी समूल समाप्त नहीं हो जाती।। (2) क्या लोक अशाश्वत है ? हाँ, लोक अशाश्वत है द्रव्योंके प्रतिक्षणभावी परिणमनोंकी दृष्टिसे / प्रत्येक सत् प्रतिक्षण अपने उत्पाद, विनाश और ध्रौव्यात्मक परिणामी स्वभावके कारण सदृश या विसदृश परिणमन करता रहता है। कोई भी पर्याय दो क्षण नहीं ठहरती। जो हमें अनेक क्षण ठहरनेवाला परिणमन दिखाई देता है वह प्रतिक्षणभावी अनेक सदृश परिणमनोंका अवलोकन मात्र है। इस तरह सतत परिवर्तनशील संयोग-वियोगोंकी दृष्टिसे विचार कीजिए, तो लोक अशाश्वत है, अनित्य है, प्रतिक्षण परिवर्तित है।। (3 ) क्या लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों रूप है ? हाँ, क्रमशः उपयुक्त दोनों दृष्टियोंसे विचार करने पर लोक शाश्वत भी है ( द्रव्यदृष्टिसे ) और अशाश्वत भी है ( पर्यायदृष्टिसे ), दोनों दृष्टिकोणोंको क्रमशः प्रयुक्त करनेपर और उन दोनोंपर स्थूल दृष्टिसे विचार करनेपर जगत् उभयरूप भी प्रतिभासित होता है। (4) क्या लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों रूप नहीं है ? आखिर उसका पूर्ण रूप क्या है ? हाँ, लोकका पूर्ण रूप वचनोंके अगोचर है, अवक्तव्य है। कोई ऐसा शब्द नहीं, जो एक साथ लोकके शाश्वत और अशाश्वत दोनों स्वरूपोंको तथा उसमें विद्यमान अन्य अनन्त धर्मोको युगपत् कह सके। अतः शब्दकी असामर्थ्य के कारण जगत्का पूर्ण रूप अवक्तव्य है, अनुभय है, वचनातीत है। __इस निरूपणमें आप देखेंगे कि वस्तुका पूर्णरूप वचनोंके अगोचर है, अवक्तव्य है। चौथा उत्तर वस्तुके पूर्ण रूपको युगपत् न कह सकनेकी दृष्टि से है पर वही जगत् शाश्वत कहा जाता है द्रव्यदृष्टिसे और अशाश्वत कहा जाता है पर्यायदृष्टिसे। इस तरह मूलतः चौथा, पहला और दूसरा ये तीन प्रश्न मौलिक हैं। तीसरा उभयरूपताका प्रश्न तो प्रथम और द्वितीयका संयोगरूप है। अब आप विचारें कि जब संजयने लोकके शाश्वत और अशाश्वत आदिके बारेमें स्पष्ट कहा है कि 'यदि मैं जानता होऊँ, तो बताऊँ' और बुद्धने कह दिया कि 'इनके चक्करमें न पड़ो, इनका जानना उपयोगी नहीं है, ये अव्याकृत हैं' तब महावीरने उन प्रश्नोंका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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