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________________ स्याद्वाद 387 उस समयके आत्मादि अतीन्द्रिय पदार्थविषयक प्रश्न चतुष्कोटिमें ही पूछे जाते थे। वेद और उपनिषदें इस चतुष्कोटिके दर्शन बराबर होते हैं / 'यह विश्व सत्से हुआ या असत्से ? यह सत् है या असत् या उभय या अनिर्वचनीय' ये प्रश्न जब सहस्रों वर्षसे प्रचलित रहे हैं तब राहुलजीका स्याद्वादके विषयमें यह फतवा दे देना कि 'संजयके प्रश्नोंके शब्दोंसे या उसकी चतुर्भङ्गीको तोड़-मरोड़कर सप्तभंगी बनी'-कहाँ तक उचित है, इसका वे स्वयं विचार करें। बुद्ध के समकालीन जो अन्य पाँच तीथिक थे, उनमें निग्गंठ नाथपुत्त वर्धमानमहावीरकी सर्वज्ञ और सर्वदर्शीके रूपमें प्रसिद्धि थी। 'वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे, या नहीं' यह इस समयकी चरचाका विषय नहीं है, पर वे विशिष्ट तत्त्वविचारक अवश्य थे और किसी भी प्रश्नको संजयकी तरह अनिश्चय या विक्षेप कोटिमें और बुद्धकी तरह अव्याकृत कोटिमें डालनेवाले नहीं थे, और न शिष्योंकी सहज जिज्ञासाको अनुपयोगिताके भयप्रद चक्करमें डुबा देना चाहते थे। उनका विश्वास था कि संघके पंचमेल व्यक्ति जब तक वस्तुतत्त्वका ठीक निर्णय नहीं कर लेते, तब तक उनमें बौद्धिक दृढ़ता और मानसबल नहीं आ सकता। वे सदा अपने समानशील अन्य संघके भिक्षुओंके सामने अपनी बौद्धिक दीनताके कारण हतप्रभ रहेंगे और इसका असर उनके जीवन और आचारपर आये बिना नहीं रहेगा। वे अपने शिष्योंको पर्देबन्द पद्मिनियोंकी तरह जगत्के स्वरूप-विचारकी बाह्य हवासे अपरिचित नहीं रखना चाहते थे। किन्तु चाहते थे कि प्रत्येक मानव अपनी सहज जिज्ञासा और मनन शक्तिको वस्तुके यथार्थ स्वरूपके विचारकी ओर लगावे / न उन्हें बुद्धकी तरह यह भय व्याप्त था कि यदि आत्माके सम्बन्धमें 'हाँ' कहते हैं तो शाश्वतवाद अर्थात् उपनिषद्वादियोंकी तरह लोग नित्यत्वकी ओर झुक जायँगे और 'नहीं है' कहनेसे उच्छेदवाद अर्थात् चार्वाककी तरह नास्तिकताका प्रसंग उपस्थित होगा, अतः इस प्रश्नको अव्याकृत रखना ही श्रेष्ठ है। वे चाहते थे कि मौजूदा तर्कों और संशयोंका समाधान वस्तुस्थितिके आधारसे होना ही चाहिये। अतः उन्होंने वस्तुस्वरूपका अनुभव कर बताया कि जगत्का प्रत्येक सत् अनन्त धर्मात्मक है और प्रतिक्षण परिणामी है। हमारा ज्ञानलव (दृष्टि उसे एक-एक अंशसे जानकर भी अपने में पूर्णताका मिथ्याभिमान कर बैठता है। अतः हमें सावधानीसे वस्तुके विराट् अनेकान्तात्मक स्वरूपका विचार करना चाहिये। अनेकान्त दृष्टिसे तत्त्वका विचार करनेपर न तो शाश्वतवादका भय है और न उच्छेदवादका। पर्यायकी दृष्टि से आत्मा उच्छिन्न होकर भी अपनी अनाद्यन्त धाराकी दृष्टिसे अविच्छिन्न है, शाश्वत है। इसी दृष्टिसे हम लोकके शाश्वतअशाश्वत आदि प्रश्नोंको भी देखें। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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