SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्याद्वाद 385 उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते हैं ( -वक्तव्य हैं ) ? इसका उत्तर जैन 'नहीं' में देते हैं 4 स्यात् ( हो सकता है ) क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, स्याद् अ-वक्तव्य है। 5 'स्यादस्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, स्यादस्ति अवक्तव्य है / 6 'स्यान्नास्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्यात् नास्ति' अवक्तव्य है / 7 'स्यादस्ति च नास्ति च' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्यादस्ति च नास्ति च' अ-वक्तव्य है। दोनोंके मिलानेसे मालूम होगा कि जैनोंने संजयके पहले वाले तीन वाक्यों ( प्रश्न और उत्तर दोनों) को अलग करके अपने स्याद्वादकी छह भंगियाँ बनायी हैं और उसके चौथे वाक्य 'न हैं और न नहीं है' को जोड़कर स्यात्सदसत् भी अवक्तव्य है यह सातवाँ भंग तैयार कर अपनी सप्तभंगी पूरी की।.........."इस प्रकार एक भी सिद्धान्त (-स्यात् ) की स्थापना न करना जो कि संजयका वाद था, उसीको संजयके अनुयायियोंके लुप्त हो जानेपर जैनोंने अपना लिया और उसके चतुर्भङ्गी न्यायको सप्तभंगीमें परिणत कर दिया।" -दर्शनदिग्दर्शन पृ० 496 / राहुलजीने उक्त सन्दर्भमें सप्तभंगी और स्याद्वादके रहस्यको न समझकर केवल शब्दसाम्य देखकर एक नये मतकी सृष्टि की है। यह तो ऐसा ही है / जैसे कि चोरसे जज यह पूछे कि-'क्या तुमने यह कार्य किया है ?' चोर कहे कि 'इससे आपको क्या ?' या 'मैं जानता होऊँ, तो कहूँ ?' फिर जज अन्य प्रमाणोंसे यह सिद्ध कर दे कि 'चोरने यह कार्य किया है' तब शब्दसाम्य देखकर यह कहना कि जजका फैसला चोरके बयानसे निकला है। 'संजयवेलट्ठिपुत्तके दर्शनका विवेचन स्वयं राहुलजीने ( दर्शनदिग्दर्शन पृ० 491 में ) इन शब्दोंमें किया है-“यदि आप पूछे-'क्या परलोक है ?' तो यदि मैं समझता होऊँ कि परलोक है तो आपको बतलाऊँ कि परलोक है। मैं ऐसा भी नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता, दूसरी तरहसे भी नहीं कहता। मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं है, मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं नहीं है। परलोक नहीं है, परलोक नहीं नहीं है, परलोक है भी और नहीं भी है, परलोक न है और न नहीं है।" 1. इसके मतका विस्तृत वर्णन दीघनिकाय सामञफलसुत्तमें है। यह विक्षेपवादी था। 'अमराविक्षेपवाद' रूपसे भी इसका मत प्रसिद्ध था। 25 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy