________________ 384 जैनदर्शन अर्थका द्योतन होता है। नयमें एक धर्मका मुख्यभावसे ग्रहण होकर भी शेष धर्मोंका निराकरण नहीं किया जाता है। उनका सद्भाव गौणरूपसे स्वीकृत रहता है जब कि दुर्नयमें अन्य धर्मोंका निराकरण कर दिया जाता है / नयवाक्यमें 'स्यात्' पद प्रतिपक्षी शेष धर्मोंके अस्तित्वकी रक्षा करता है। दुर्नयमें अपने धर्मका अवधारण होकर अन्यका निराकरण ही हो जाता है। अनेकान्तमें जो सम्यगेकान्त समाता है वह धर्मान्तरसापेक्ष धर्मका ग्राहक ही तो होता है। यह मैं बता चुका हूँ कि आजसे तीन हजार वर्ष पूर्व तथा इससे भी पहले भारतके मनीषी विश्व और तदन्तर्गत प्रत्येक पदार्थके स्वरूपका 'सत्; असत्, उभय और अनुभय, एक अनेक उभय और अनुभय' आदि चार कोटियोंमें विभाजित कर वर्णन करते थे। जिज्ञासु भी अपने प्रश्नको इन्हीं चार कोटियोंमें पूछता था। म० बुद्धसे जब तत्त्वके सम्बन्धमें विशेषतः आत्माके सम्बन्धमें प्रश्न किये गये, तो उनने उसे अव्याकृत कहा। संजय इन प्रश्नोंके सम्बन्धमें अपना अज्ञान ही प्रकट करता था। किन्तु भ० महावीरने अपने सप्तभंगीन्यायसे इन चार कोटियोंका ही वैज्ञानिक समाधान नहीं किया, अपितु अधिक-से-अधिक संभवित सात कोटियों तकका उत्तर दिया। ये उत्तर ही सप्तभंगी या स्याद्वाद हैं / संजयके विक्षेपवादसे स्याद्वाद नहीं निकला' : महापण्डित राहुल सांकृत्यायन तथा इतः पूर्व डॉ० हर्बन जैकोबी आदिने स्याद्वाद या सप्तभंगकी उत्पत्तिको संजयवेललिपुत्तके मतसे बतानेका प्रयत्न किया है। राहुलजीने दर्शनदिग्दर्शनमें लिखा है कि-"आधुनिक जैनदर्शनका आधार स्याद्वाद है / जो मालूम होता है संजयवेलट्ठिपुत्तके चार अंगवाले अनेकान्तवादको लेकर उसे सात अंगवाला किया गया है। संजय तत्त्वों ( परलोक, देवता ) के बारेमें कुछ भी निश्चयात्मक रूपसे कहनेसे इनकार करते हुए उस इनकारको चार प्रकार कहा है- 1 'है ?' नहीं कह सकता। 2 नहीं है ?' नहीं कह सकता। 3 'है भी और नहीं भी नहीं कह सकता। 4 'न है और न नहीं है ?' नहीं कह सकता / इसकी तुलना कीजिए जैनोंके सात प्रकारके स्याद्वाद से 1 'है ?' हो सकता है ( स्यादस्ति ), 2 'नहीं है ?' नहीं भी हो सकता है ( स्यान्नास्ति ), 3 'है भी और नहीं भी ?' है भी और नहीं भी हो सकता ( स्यादस्ति च नास्ति च ) / 1. देखो, न्यायविनिश्चय विवरण प्रथम भागकी प्रस्तावना / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org