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________________ स्याद्वाद 383 ग्रहण करते समय दृष्टिके सामने अंशकल्पना बराबर रहती है, अतः इन्हें विकलादेशी कहना चाहिये / यद्यपि 'स्यात्' पद होनेसे शेष धर्मोका संग्रह इनमें भी हो जाता है; पर धर्मभेद होनेसे अखंड धर्मी अभिन्नभावसे गृहीत नहीं हो पाती, इसलिये ये विकलादेश हैं। उ० यशोविजयजीने जैनतर्क-भाषा और गुरुतत्त्वविनिश्चय आदि अपने ग्रन्थोंमें इस परम्पराका अनुसरण न करके सातों ही भंगोंको सकलादेशी और विकलादेशी दोनों रूप माना है। पर अष्टसहस्रीविवरण (पृ० 208 बी० ) में वे तीन भंगोंको सकलादेशी और शेषको विकलादेशी माननेका पक्ष भी स्वीकार करते हैं। वे लिखते हैं कि देश भेदके बिना क्रमसे सत्, असत्, उभयकी विवक्षा हो नहीं सकती, अतः निरवयव द्रव्यको विषय करना संभव नहीं है, इसलिये चारों भंगोंको विकलादेशी मानना चाहिये / यह मतभेद कोई महत्त्वका नहीं है; कारण जिस प्रकार हम सत्त्वमुखेन समस्त वस्तुका संग्रह कर सकते हैं, उसी तरह सत्त्व और असत्त्व दो धर्मों के द्वारा भी अखंड वस्तुका स्पर्श करने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती / यह तो विवक्षाभेद और दृष्टिभेदकी बात है / मलयगिरि आचार्यके मतको मीमांसा : आचार्य मलयगिरि ( आव० नि० मलय० टी० पृ० 371 ए ) प्रमाणवाक्यमें ही 'स्यात्' शब्दका प्रयोग मानते हैं। उनका अभिप्राय है कि नयवाक्यमें जब 'स्यात्' पदके द्वारा शेष धर्मोका संग्रह हो जाता है तो वह समस्त वस्तुका ग्राहक होनेसे प्रमाण ही हो जायगा, नय नहीं रह सकता, क्योंकि नय तो एक धर्मका ग्राहक होता है। इनके मतसे सभी नय एकान्तग्राहक होनेसे मिथ्यारूप हैं। किन्तु उनके इस मतकी उ० यशोविजयजीने गुरुतत्त्वविनिश्चय (पृ० 17 बी ) में आलोचना की है। वे लिखते हैं कि “नयान्तरसापेक्ष नयका प्रमाणमें अन्तर्भाव करने पर व्यवहारनयको प्रमाण मानना होगा, क्योंकि वह निश्चयकी अपेक्षा रखता है। इसी तरह चारों निक्षेपोंको विषय करनेवाले शब्दनय भी भावविषयक शब्दनयसापेक्ष होनेसे प्रमाण हो जायेंगे / वास्तविक बात तो यह है कि नयवाक्यमें 'स्यात्' पद प्रतिपक्षी नयके विषयको सापेक्षता ही उपस्थित करता है, न कि अन्य अनन्त धर्मोंका परामर्श करता है। यदि ऐसा न हो तो अनेकान्तमें सम्यगेकान्तका अन्तर्भाव ही नहीं हो सकेगा। सम्यगेकान्त अर्थात् प्रतिपक्षी धर्मकी अपेक्षा रखनेवाला एकान्त / इसलिए 'स्यात्' इस अव्ययको अनेकान्तका द्योतक माना है न कि अनन्तधर्मका परामर्श करनेवाला। अतः प्रमाणवाक्यमें 'स्यात्' पद अनन्त धर्मका परामर्श करता है और नयवाक्यमें प्रतिपक्षी धर्मकी अपेक्षाका द्योतन करता है।" प्रमाणमें तत् और अतत् दोनों गृहीत होते हैं और 'स्यात्' पदसे उस अनेकान्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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