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________________ 382 जैनदर्शन धर्म गौण हो जाते हैं / जब द्रव्याथिकनयकी विवक्षा होती है तब समस्त गुणोंमें अभेदवृत्ति तो स्वतः हो जाती है, परन्तु पर्यायार्थिकनयकी विवक्षा होने पर गुण और धर्मोमें काल आदिकी दृष्टिसे अभेदोचार करके समस्त वस्तुका ग्रहण कर लिया जाता है / काल, आत्मरूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द इन आठ दृष्टियोंसे गुणादिमें अभेदका उपचार किया जाता है / जो काल एक गुणका है वही अन्य अशेष गुणोंका है, अतः कालकी दृष्टिसे उनमें अभेदका उपचार हो जाता है। जो एक गुणका 'तद्गुणत्व' स्वरूप है वही शेष समस्त गुणोंका है / जो आधारभूत अर्थ एक गुणका है वही शेष सभी गुणोंका है / जो कथञ्चित्तादात्म्य सम्बन्ध एक गुणका है वही शेष गुणोंका भी है। जो उपकार अपने अनुकूल विशिष्टबुद्धि उत्पन्न करना एक गुणका है वही उपकार अन्य शेष गुणोंका है / जो गुणिदेश एक गुणका है वही अन्य शेष गुणोंका है। जो संसर्ग एक गुणका है वही शेष धर्मोंका भी है। जो शब्द 'उस द्रव्यका गुण' एक गुणके लिये प्रयुक्त होता है वही शेष धर्मोंके लिये प्रयुक्त होता है। तात्पर्य यह कि पर्यायाथिककी विवक्षामें परस्पर भिन्न गुण और पर्यायोंमें अभेदका उपचार करके अखंडभावसे समग्र द्रव्य गृहीत हो जाता है विकलादेशमें द्रव्याथिकनयकी विवक्षा होने पर भेदका उपचार करके एक धर्मका मुख्यभावसे ग्रहण होता है। पर्यायार्थिकनयमें तो भेदवृत्ति स्वतः है ही। भंगोंमें सकलविकलादेशता : यह स भंगी सकलादेशके रूपमें प्रमाणसप्तभंगी कही जाती है और विकलादेशके रूपमें नयसप्तभंगी नाम पाती है। नयसप्तभंगी अर्थात् विकलादेशमें मुख्य रूपसे विवक्षित धर्म गृहीत होता है; शेषका निराकरण तो नहीं ही होता पर ग्रहण भी नहीं होता, जब कि सकलादेशमें विवक्षितधर्मके द्वारा शेष धर्मोंका भी ग्रहण होता है।। ____ आ० सिद्धसेनगणि, अभयदेव. सूरि ( सन्मति० टी० पृ० 446 ) आदिने 'सत्, असत् और अवक्तव्य' इन तीन भंगोंको सकलादेशी तथा शेष चार भंगोंको विकलादेशी माना है। इनका तात्पर्य यह है कि प्रथम भंगमें द्रव्याथिक दृष्टिसे 'सत्' रूपसे अभेद मानकर संपूर्ण द्रव्यका ग्रहण हो जाता है। द्वितीय भंगमें पर्यायाथिक दृष्टिसे समस्त पर्यायोंमें अभेदोपचार करके समस्त द्रव्यको ग्रहण कर सकते हैं। और तृतीय अवक्तव्य भंगमें तो सामान्यतया अविवक्षित भेदवाले द्रव्यका ग्रहण होता है। अतः इन तीनोंको सकलादेशी कहना चाहिये। परन्तु चतुर्थ आदि भंगोंमें तो दो-दो अंशवाली तथा सातवें भंगमें तीन अंशवाली वस्तुके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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