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________________ स्याद्वाद 381 गर्भमें प्रतिभास होता है / विकल अर्थात् एक धर्मका मुख्यरूपसे ज्ञान कराने के कारण ही यह वाक्य विकलादेश या नय कहा जाता है। विकलादेशी वाक्यमें भी 'स्यात्' पदका प्रयोग होता है जो शेष धर्मोकी गौणता अर्थात् उनका अस्तित्वमात्र सूचित करता है / इसीलिए ‘स्यात्' पदलांछित नय सम्यकनय कहलाता है / सकलादेशमें धर्मीवाचक शब्दके साथ एवकार लगता है / यथा-'स्याज्जीव एव' / अत एव यह धर्मीका अखंडभावसे बोध कराता है, विकलादेशमें 'स्यादस्त्येव जीवः' इस तरह धर्मवाचक शब्दके साथ एवकार लगता है जो अस्तित्व धर्मका मुख्यरूपसे ज्ञान कराता है। अकलंकदेवने तत्त्वार्थवार्तिक ( 4 / 42 ) में दोनोंका ‘स्यादस्त्येव जीवः' यही उदाहरण दिया है। उसकी सकलविकलादेशता समझाते हुए उन्होंने लिखा है कि जहाँ अस्ति शब्दके द्वारा सारी वस्तु समग्रभावसे पकड़ ली जाय वह सकलादेश है और जहाँ अस्तिके द्वारा अस्तित्व धर्मका मुख्यरूपसे तथा शेष धर्मोंका गौणरूपसे भान हो वह विकलादेश है। यद्यपि दोनों वाक्योंमें समग्न वस्तु गृहीत होती है पर सकलादेशमें समग्र धर्म यानी पूरा धर्मी एकभावसे गृहीत होता है जब कि विकलादेशमें एक ही धर्म मुख्यरूपसे गृहीत होता है / यहाँ यह प्रश्न सहज ही उठ सकता है कि 'जब सकलादेशका प्रत्येक भंग समग्र वस्तुका ग्रहण करता है तब सकलादेशके सातों भंगोंमें परस्पर क्या भेद हुआ ?' इसका समाधान यह है कि- यद्यपि सभी धर्मोमें पूरी वस्तु गृहीत होती है सही, पर स्यादस्ति भंगमें वह अस्तित्व धर्मके द्वारा गृहीत होती है और नास्तित्व आदि भंगोंमें नास्तित्व आदि धर्मोके द्वारा / उनमें मुख्य-गौणभाव भी इतना ही है कि जहाँ अस्ति शब्दका प्रयोग है वहाँ मात्र 'अस्ति' इस शाब्दिक प्रयोगकी ही मुख्यता है, धर्मकी नहीं। शेष धर्मोकी गौणता भी इतनी ही है कि उनका उस समय शाब्दिक प्रयोग द्वारा कथन नहीं हुआ है। कालादिकी दृष्टि से भेदाभेद कथन : प्रथम भंगमें द्रव्याथिकके प्रधान होनेसे 'अस्ति' शब्दका प्रयोग है और उसी रूपसे समस्त वस्तुका ग्रहण है। द्वितीय भंगमें पर्यायाथिकके प्रधान होनेसे 'नास्ति' शब्दका प्रयोग है और उसी रूपसे पूरी वस्तुका ग्रहण किया जाता है। जैसेकिसी चौकोर कागजको हम क्रमशः चारों छोरोंको पकड़कर उठावें तो हर बार उठेगा तो पूरा कागज, पर उठानेका ढंग बदलता जायगा, वैसे ही सकलादेशके भंगोंमें प्रत्येकके द्वारा ग्रहण तो पूरी ही वस्तुका होता है; पर उन भंगोंका क्रम बदलता जाता है। विकलादेशमें वही धर्म मुख्यरूपसे गृहीत होता है और शेष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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