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________________ 38. जैनदर्शन है / संसारमें समझदारोंकी अपेक्षा कमसमझ या नासमझोंकी संख्या ही औसत दर्जे अधिक रहती आई है / अतः सर्वत्र 'स्यात्' शब्दका प्रयोग करना ही राजमार्ग है। परमतकी अपेक्षा भंग-योजना : स्यादस्ति अवक्तव्य आदि तीन भंग परमतकी अपेक्षा इस तरह लगाये जाते हैं / अद्वैतवादियोंका सन्मात्र तत्त्व अस्ति होकर भी अवक्तव्य है, क्योंकि केवल सामान्यमें वचनोंकी प्रवृत्ति नहीं होती। बौद्धोंका अन्यापोह नास्तिरूप होकर भी अवक्तव्य है, क्योंकि शब्दके द्वारा मात्र अन्यका अपोह करनेसे किसी विधिरूप वस्तुका बोध नहीं हो सकेगा। वैशेषिकके स्वतन्त्र सामान्य और विशेष अस्तिनास्ति-सामान्य-विशेषरूप होकर भी अवक्तव्य हैं-शब्दके वाच्य नहीं हो सकते; क्योंकि दोनोंको स्वतन्त्र मानने पर उनमें सामान्य-विशेषभाव नहीं हो सकता। सर्वथा भिन्न सामान्य और विशेषमें शब्दकी प्रवृत्ति नहीं होती और न उनसे कोई अर्थक्रिया ही हो सकती है। सकलादेश और विकलादेश : लघीयस्त्रयमें सकलादेश और विकलादेशके सम्बन्धमें लिखा है "उपयोगौ श्रुतस्य द्वौ स्याद्वाद-नयसंज्ञितौ। स्याद्वादः सकलादेशी नयो विकलसंकथा // 32 // " अर्थात् श्रुतज्ञानके दो उपयोग हैं-एक स्याद्वाद और दूसरा नय। स्याद्वाद सकलादेशरूप होता है और नय विकलादेश / सकलादेशको प्रमाण तथा विकलादेशको नय कहते हैं / ये सातों ही भंग जब सकलादेशी होते हैं तब प्रमाण और सप्तभंगी और नयसप्तभंगीके रूपमें विभाजित हो जाती है / एक धर्मके द्वारा समस्त वस्तुको अखंडरूपसे ग्रहण करनेवाला सकलादेश है तथा उसी धर्मको प्रधान तथा शेष धर्मोको गौण करनेवाला विकलादेश है / स्याद्वाद अनेकान्तात्मक अर्थको ग्रहण करता है / जैसे—'जीव' कहनेसे ज्ञान, दर्शन आदि असाधारण गुणवाले सत्त्व, प्रमेयत्वादि साधारण स्वभाववाले तथा अमूर्तत्व, असंख्यातप्रदेशित्व आदि साधारणासाधारणधर्मशाली जीवका समग्रभावसे ग्रहण हो जाता है / इसमें सभी धर्म एकरूपसे गृहीत होते हैं, अतः गौणमुख्यव्यवस्था अन्तर्लीन हो जाती है।' __ विकलादेशी नय एक धर्मका मुख्यरूपसे कथन करता है। जैसे-'ज्ञो जीवः' कहनेसे जीवके ज्ञानगुणका मुख्यतया बोध होता है, शेष धर्मोंका गौणरूपसे उसीके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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