________________ स्याद्वाद 379 तृतीय भंग-जब घड़ेके दोनों स्वरूप युगपत् विवक्षित होते हैं, तो कोई ऐसा शब्द नहीं है जो दोनोंको मुख्यभावसे एक साथ कह सके, अतः घट अवक्तव्य है। आगेके चार भंग संयोगज हैं और वे इन तीन भंगोंकी क्रमिक विवक्षा पर सामूहिक दृष्टि रहनेपर बनते हैं / यथा चतुर्थ भंग-आस्तिनास्ति उभयरूप है। प्रथम क्षणमें स्वचतुष्टय, द्वितीयक्षणमें परचतुष्टयकी क्रमिक विवक्षा होनेपर और दोनोंपर सामूहिक दृष्टि रहनेपर घट उभयात्मक है। पञ्चम भंग-प्रथम क्षणमें स्वचतुष्टय, तथा द्वितीय क्षणमें युगपत् स्वपरचतुष्टय रूप अवक्तव्यको क्रमिक विवक्षा और दोनों समयोंपर सामूहिक दृष्टि होनेपर घट स्यादस्तिअवक्तव्य है। छठवाँ भंग-स्यान्नास्ति अवक्तव्य है। प्रथम समय में परचतुष्टय, द्वितीय समयमें अवक्तव्यकी क्रमिक विवक्षा होनेपर तथा दोनों समयोंपर सामूहिक दृष्टि होनेपर घड़ा स्यान्नास्ति अवक्तव्य है / सातवाँ भंग-स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य है / प्रथम समयमें स्वचतुष्टय, द्वितीय समयमें परचतुष्टय तथा तृतीय समयमें युगपत् स्वपरचतुष्टयकी क्रमिक विवक्षा होनेपर और तीनों समयोंपर सामूहिक दृष्टि होनेपर घड़ा स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्यरूप सिद्ध होता है। ___ मैं यह बता चुका हूँ कि चौथेसे सातवें तकके भंगोंकी सृष्टि संयोगज है, और वह संभव धर्मोंके अपुनरुक्त अस्तित्वकी स्वीकृति देती है। 'स्यात् शब्दके प्रयोगका नियम : प्रत्येक भंगमें स्वधर्म मुख्य होता है और शेष धर्म गौण होते हैं। इसी गौणमुख्य विवक्षाका सूचन 'स्यात्' शब्द करता है। वक्ता और श्रोता यदि शब्दशक्ति और वस्तुस्वरूपके विवेचनमें कुशल' हैं तो 'स्यात्' शब्दके प्रयोगका कोई नियम नहीं है / उसके बिना प्रयोगके भी उसका सापेक्ष अनेकान्तद्योतन सिद्ध हो जाता है / जैसे—'अहम् अस्मि' इन दो पदोंमें एकका प्रयोग होने पर दूसरेका अर्थ स्वतः गम्यमान हो जाता है, फिर भी स्पष्टताके लिये दोनोंका प्रयोग किया जाता है उसी तरह ‘स्यात्' पदका प्रयोग भी स्पष्टता और अभ्रान्तिके लिये करना उचित 1. लघी० श्लो० 33 / 2. न्यायविनिश्चय श्लो० 454 / अष्टसहस्त्री पृ० 139 / . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org