________________ 378 जैनदर्शन द्वितीय भंग-घटका नास्तित्व घटभिन्न यावत् परपदार्थोंके द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षासे है; क्योंकि घटमें तथा परपदार्थोंमें भेदकी प्रतीति प्रमाणसिद्ध है / परात्मा। 'घट' स्वात्माकी दृष्टिसे अस्ति है और परात्माकी दृष्टिसे नारित / (2) नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपोंका जो आधार होता है वह स्वात्मा तथा अन्य परात्मा। यदि अन्य रूपसे भी 'घट' अस्ति कहा जाय तो प्रतिनियत नामादि व्यवहारका उच्छेद ही हो जायगा / (3) 'वट' शब्दके वाच्य अनेक घड़ोंमेंसे विवक्षित अमुक घटका जो आकार आदि है वह स्वात्मा, अन्य परात्मा। यदि इतर घटके आकारसे भी वह 'घट' अस्ति हो, तो सभी घड़े एकरूप हो जायेगे। (4) अमुक घट भी द्रव्यदृष्टि से अनेकक्षण स्थायी होता है। चूँकि अन्वयी मृद्रव्यकी अपेक्षा स्थास, कोश, कुशूल, कपाल आदि पूर्वोत्तर अवस्थाओंमें भी 'घट' व्यवहार संभव है। अतः मध्यक्षणवर्ती 'घट' पर्याय स्वात्मा है तथा अन्य पूर्वोत्तर पर्यायें परात्मा। उसी अवस्थामें वह घट है, क्योंकि घटके गुण, क्रिया आदि उसी अवस्थामें पाये जाते हैं। (5) उस मध्यकालवों घट पर्यायमें भी प्रतिक्षण उपचय और अपचय होता रहता है, अंतः ऋजुसूत्रनयकी दृष्टिसे एकक्षणवर्ती घट ही स्वात्मा है, अतीत अनागत कालीन उसी घटकी पर्यायें परात्मा हैं। यदि प्रत्युत्पन्न क्षणको तरह अतीत और अनागत क्षणोंसे भी घटका अस्तित्व माना जाय तो सभी घट बर्तमान क्षणमात्र ही हो जायगें। अतीत और अनागतकी तरह प्रत्युत्पन्न क्षणसे भी असत्त्व माना जाय, तो जगत्से घटव्यवहारका लोप ही हो जायगा। (6) उस प्रत्युत्पन्न घट क्षणमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, आकार आदि अनेक गुण और पर्यायें हैं, अतः घड़ा पृथुबुध्नोदराकारसे है, क्योंकि घटव्यवहार इसी आकारसे होता है, अन्यसे नहीं। (7) आकारमें रूप, रस आदि सभी हैं / घड़ेके रूपको आँखसे देखकर ही घड़ेके अस्तित्वका व्यवहार होता है, अतः रूप स्वात्मा है तथा रसादि परात्मा / आँखसे घड़ेको देखता हूँ, यहाँ रूपको तरह रसादि भी घटके स्वात्मा हो जाय, तो रसादि भी चक्षुयाह्य होनेसे रूपात्मक हो जायेंगे। ऐसी दशामें अन्य इन्द्रियोंकी कल्पना ही निरर्थक हो जाती है। (8) शब्दभेदसे अर्थभेद होता है। अतः घट शब्दका अर्थ जुदा है तथा कुट आदि शब्दोंका जुदा, घटन क्रियाके कारण घट है तथा कुटिल होनेसे कुट। अतः घड़ा जिस समय घटन क्रियामें परिणत हो, उसी समय उसे घट कहना चाहिये / इसलिये घटन क्रियामें कर्त्तारूपसे उपयुक्त होनेवाला स्वरूप स्वात्मा है और अन्य परात्मा। यदि इतररूपसे भी घट कहा जाय, तो पटादिमें भी घटव्यवहार होना चाहिये। इस तरह सभी पदार्थ एक शब्दके वाच्य हो जाँयगें। (9) घटशब्दके प्रयोगके बाद उत्पन्न घटज्ञानाकार स्वात्मा है, क्योंकि वही अन्तरंग है और अहेय है, बाह्य घटाकार परात्मा है, अतः घड़ा उपयोगाकारसे है, अन्यसे नहीं। (10) चैतन्यशक्तिके दो आकार होते हैं-१ शानाकार, 2 शेयाकार / प्रतिबिम्बशून्य दर्पणकी तरह ज्ञानाकार है और सप्रतिबिम्ब दर्पणकी तरह ज्ञेयाकार / इनमें शेयाकार स्वात्मा है क्योंकि घटाकार शानसे ही घटव्यवहार होता है। शानाकार परात्मा है, क्योंकि वह सर्वसाधारण है। यदि ज्ञानाकारसे घट माना जाय तो घटादि ज्ञान कालमें भी घटव्यवहार होना चाहिए। यदि ज्ञेयाकारसे भी घट 'नास्ति' माना जाय, तो घट व्यवहार निराधार हो जायगा।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org